हंस उधारन भौजल
तारन सतगुर आये थे लोई
एक दिन रात को भोजन करने के बाद सतगुरु गरीबदास जी पलंग पर आराम कर रहे थे और कुछ
शिष्य उनकी सेवा में उपस्थित थे | उनमें से कुछ उनके चरण दबा रहे थे और कुछ पंखा
कर रहे थे | जब कुछ साधारण बातें चल रही थी तो उनमें से एक शिष्य ने सतगुरु जी से
पूछा की सतगुरु ! आप ने अपनी वाणी में कहा है की –
गरीब जिस मंडल
साधु नहीं, नदी नहीं गुंजार |
तजि हंसा औह
देसड़ा, जम की मोटी मार ||
गरीब बाग नहीं
बेला नहीं, कूप न सरवर सिंध |
नगरी निहचै
त्यागिये, जम के परि हैं फंध ||