हंस उधारन भौजल
तारन सतगुर आये थे लोई
एक दिन रात को भोजन करने के बाद सतगुरु गरीबदास जी पलंग पर आराम कर रहे थे और कुछ
शिष्य उनकी सेवा में उपस्थित थे | उनमें से कुछ उनके चरण दबा रहे थे और कुछ पंखा
कर रहे थे | जब कुछ साधारण बातें चल रही थी तो उनमें से एक शिष्य ने सतगुरु जी से
पूछा की सतगुरु ! आप ने अपनी वाणी में कहा है की –
गरीब जिस मंडल
साधु नहीं, नदी नहीं गुंजार |
तजि हंसा औह
देसड़ा, जम की मोटी मार ||
गरीब बाग नहीं
बेला नहीं, कूप न सरवर सिंध |
नगरी निहचै
त्यागिये, जम के परि हैं फंध ||
सतगुरु जी वाणी में कही जो खा गया है वैसा कुछ भी इस स्थान पर नहीं पाया जाता तो
फिर आपने इसी स्थान को क्यूं अपनाया ? आप दिल्ली जैसे संपन्न नगर में क्यूं नहीं
रहते ?
सतगुरु जी बोले की अच्छा बताओ अगर किसी व्यक्ति का लाल कुरडी में खो जाए, तो
वह उसे कुरडी में ढूंढेगा या दिल्ली के किसी बाजार में ? सभी ने कहा की कुरडी में
| सतगुरु जी बोले की काशी में हमसे बिछुड़ चुके हंस इसी बंजर भूमि में खोये हुए
हैं, उन्हीं के उद्धार के लिए हम यहां आए
हैं | इसलिए दिल्ली जैसे सम्पन्न
नगर हमारे किस काम के ? जहाँ हमारे हंस होते हैं हम वहीँ उनके उद्धार के लिए आते
हैं |
जुगन जुगन हम
कहते आये | भौसागर से जीव छुटाये |
उनमें से एक शिष्य ने कहा की सतगुरु काशी के उन्मुख शिष्यों ने सत्यलोक से आई बावन
लाख वाणी को गंगा में डूबो कर बड़ा ही अनर्थ किया | सतगुरु जी बोले की वाणी को गंगा
में डुबोने वाले क्या कोई अन्य व्यक्ति थे ? तुमने बारह हजार और प्रेमदास ने तेरह
हजार डुबोई है | अब पछताने से क्या लाभ ? उस समय विचार करना चाहिये था | यदि उस
समय तुम विमुख होकर यह कर्म नहीं करते तो हमें इस बंजर भूमि में नहीं आना पड़ता |
इन वचनों को सुनकर सबके मन में पश्चाताप होने लगा | एक शिष्य ने कहा की सतगुरु आप
धन्य हैं जो हम जैसे जीवों के उद्धार के लिए इस देश में आए हो | हम भी आपके आने से धन्य हो गए | सतगुरु जी
मेरे मन में प्रश्न है की जब सारा हरियाणा आप को मानता है तो इस प्रांत के कुछ गाँव
जैसे दुलेहड़ा, खेड़का और आधी छुडानी के लोग आप को क्यों नहीं मानते ?
सतगुरु जी ने कहा की जब हम काशी में थे, उस समय यह लोग वहां पर काजी और पंडे थे | हम तो अपने
हंसों के उद्धार के लिए इस प्रदेश में आए हैं और यह अपने पूर्व द्वैषभाव को लेकर हमारे
साथ यहां आये हैं | इनकी हमसे इर्षा बहुत पुरानी है | अतीत काल से ही इनके संग चलि
आ रही है इसलिए इनका अभिन्न अंग बन गई है | इसिलए अब इस इर्षा को छोड़ना इनके लिए
कठिन जान पड़ता है | हमे इनसे कोई हानी नहीं | इस उत्तर से सभी की शंकाएं जाती रहीं
और मन शांत हो गए |
उसी सभा में से एक नए आए दर्शनार्थी ने सतगुरु जी से पूछा, “महाराज ! सत्यपुरुष की निरख परख क्या है ?
सतगुरु जी बोले – पंछी ! निरख परख तो साकार और साव्यय की होती है, निराकार और
निर्गुण की पहचान क्या हो सकती है | वह तो तेरे ही अनुरूप है, तेरे से भिन्न नहीं
| जैसे स्वर्ण के आभूषण स्वर्ण से अलग नहीं होते, वैसे ही तू अपने को जान ले |
आपने अपने श्री मुख से वाणी के कुछ अंश उच्चारे
निरख परख कुछ आवत
नाही, है जैसे कूं तैसा |
गरीबदास मोचन पद
साहिब, कहि दिखलाऊँ कैसा ||
तेरे ही उनहार
है, तेरा साहिब जान |
गरीब आतम और
परमात्मा, ऐकै नूर जहूर |
बिचकर झांई कर्म
की, तातैँ कहिये दूर ||
|| सत साहिब ||
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