सतगुरु बन्दीछोड़ साहिब गरीब दास जी का अवतरण
अनंत श्री विभूषित प्रात:
स्मरणीय श्री जगतगुरु बाबा गरीब दास जी महाराज का अवतरण हरियाणा प्रान्त
के जिल्हा-झज्जर , तहसील - बहादुरगढ के गाँव
छुडानी में विक्रमी संमत १७७४ (ई. सन १७१७) की वैशाख शुक्ल पूर्णिमा
को, मंगलबार के दिन, सूर्योदय से दो
महूर्त पहले, अभिजीत नक्षत्र में, क्षत्रिय कुल में, जाट जाती के धनखड
गोत्र में पिता श्री बलराम जी के घर सुभागी माता श्रीमती राणी जी की पवित्र कोख
से हुआ |
आपके पिता जी धार्मिक वृति के सज्जन पुरुष थे | हमेशा साधू, संतों की सेवा करते | सत्संग सुनते और भजन किया करते | आप
के पिता जी श्री बलराम सिंह जी का मूल गाँव करौंथा था | आचार्य जी के नाना श्री
शिवलाल जी के लड़कियों की ही संतान थी कोई पुत्र नहीं था इसलिए उन्होंने श्री बलराम
जी को अपना घर जवाई बनाया और इस
तरह बलराम जी वि. सं . १७६० से छुडानी में आकर रहने लगे | विवाह के पश्चात १२ वर्ष
तक आप के यहां कोई संतान नहीं हुई | देवयोग से छुडानी के बाहर तलाब पर एक सिद्ध
महापुरुष का आगमन हुआ | जब शिवलाल जी को पता लागा तो सपरिवार महत्मा जी के दर्शन
करने गए | दण्डवत प्रणाम करके उनके समीप जा बैठे और कुछ धार्मिक उपदेश प्राप्त
करने के पश्चात उन्होंने अपना दर्द महात्मा जी से बताते हुए कहा की महाराज मेरी पुत्री
के विवाह को १२ वर्ष हो चुके लेकिन इन के यहां कोई संतान नहीं है | आप कृपा करके
कोई उपाय बताएं जिससे इनके यहां संतान हो जाए |
महापुरुष जी ने
ध्यान पूर्वक दोनों की तरफ देखा और बोले “भक्त जी आप की पुत्री और दामाद कोई
सस्धारण व्यक्ति नहीं हैं” | इन्होने पूर्व जनम में कठिन तपस्या करके परमात्मा से
वरदान प्राप्त क्या है की हमारे यहाँ परमात्मा जैसा ही पुत्र उत्पन्न हो | पूर्व
जन्म में बलराम जी कबीर जी के भक्त थे और उनकी वाणी के मर्म को अच्छी तरह से जानते
थे | इनकी यह बड़ी तीव्र
इच्छा थी की काश मैं कबीर जी के दर्शन कर पता, उनका सहवास मुझे प्राप्त होता | इस
इच्छा के तीव्र हो जाने पर अपने लक्ष्य को पाने के लिए आप ने परब्रह्म परमेश्वर की
घोर तपस्या की जिससे प्रसन्न हो कर परमेश्वर प्रकट हुए और बलराम जी को वर दिया की
मैं आप के यहां अवतरित होऊंगा | अत : आप निश्चिंत रहें |
अपने अनन्य भक्त को दिए वचन
को पूरा करने के लिए और भटक चुके शिष्यों को पुन: मार्ग पर लाने के लिए स्वयं कबीर
साहिब जी गरीब दास जी का रूप धारण कर अवतरित हुए |
आचार्य जी को कबीर साहिब जी
का पूर्ण अवतार मना गया है | क्यूंकि स्वयं कबीर साहिब जी ने ही इस बात की घोषणा
कर दि थी की हम स्वयं बांगड़ देश में अवतार लेकर बिछुड़ चुके हंसों का उद्धार करेंगे |
महाराज गरीबदास जी ने अपनी वाणी में इसका प्रमाण भी दिया है |
जब कबीर साहिब जी को काशी
में रहते हुए बहुत समय हो गया तो उनके लाखों शिष्य बन चुके थे | कबीर साहिब जी ने
अपने शिष्यों की परीक्षा लेनें का विचार किया और सभी शिष्यों को बुला कर कहा की आज
हम काशी के बाजार में एक जलुस निकालेंगे आप सभी लोग हमारे साथ उस जलुस में शामिल
हों | फिर आप ने शिष्यों को परखने हेतु एक स्वांग रचा |
कबीर जी ने रविदास जी को अपने
साथ लिया | एक बोतल में गंगाजल भर लिया ताकि लोगों को वह शराब लगे | एक सुन्दर
लड़की साथ में ले ली और तीनों हाथी पर स्वार हो गये | गंगाजल पिते हुए मस्ती में
झुमते और गाते हुए काशी के बाजारों में घुमने लगे | यह देखकर काशी के लोग ताली
मारते हुए दोनों का मजाक उड़ाने लगे की देखो यह कबीर भ्रष्ट हो गया है | देखो दो
संत कैसे वैश्या के साथ विचरण कर रहे हैं | सभी कबीर जी को भडवा कहने लगे |
गालियां देने लगे | उनकी
जाति की निंदा करने लगे | उन्हें ढोंगी कहने लगे |
यह सब देख सुनकर सभी शिष्य
कबीर जी इस लीला के उदेश्य को बिना समझे उनसे विमुख हो गये और उन्हें छोड़ कर चले
गए | लेकिन अर्जुन और सुर्जन नामक दो शिष्य अपने दृढ़ विश्वास के कारण इस परीक्षा
में सफल हुए और वह कबीर जी को छोड़कर नहीं गए | इस तरह घूमते घूमते कबीर जी एक
चण्डाली के आंगन में जा कर बैठ गये | इस पर वह दोनों कबीर जी से बोले महाराज यहां
पर मत बैठिए यह नीचों का घर है | यह सुनकर कबीर जी ने कहा हम तो आत्मरूप से
सर्वव्यापक हैं | ऊँच नीच तो हाड़ चाम की देही का धर्म है | तुम दोनों के मन में
ग्लानी उत्पन्न हो गई है | इसलिए अब हम तुम्हें दर्शन नहीं देंगे | इसपर आप दोनों
बहुत दुखी हुए और अपने उद्धार का मार्ग पूछा | कबीर साहिब जी ने उपदेश देते हुए
कहा की तुम दोनों शब्द स्वरुप परब्रह्म परमेश्वर में प्रीति रखो | शुद्ध स्वरुप
विज्ञानात्मा निराकार निर्बंध ईश्वर में प्रीति रखने से ही प्राणियों का कल्याण हो
सकता है | इसलिए तुम भी उसी ईश्वर में प्रीति रखो |
यह सुनकर दोनों चरणों में
शीश झुकाकर बोले- की हे गुरुदेव आप पतीतों का उद्धार करने वाले हैं | जिन्होंने आप
से नाम की दीक्षा लि, लेकिन अपनी बुद्धि के कुतर्कों के कारण फिर आप से विमुख हो
कर चले गये हैं उनका उद्धार कब होगा, उनकी गलतियाँ कब माफ़ की जाएँगी |
इसपर सतगुरु जी बोले की जो एक
बार हमारी शरण में आकर हमारा उपदेश रुपी परवाना ले लेता है | चाहे उसने कितने भी
पाप किये हों | मैं सत्य कहता हूँ की मैं उसे भव सागर से पार कर के ही रहता हूँ | हम
अपने हंसों को भवसागर से पार करने के लिए उनके हृदय पर उपदेश रुपी बाणों से निशाना
मारते हैं | अगर हम शरण में आए की लाज ना रखें तो हमारा अपयश होता है | इसलिए विषय
वासनाओं के वश में होकर हमारे हंस कहीं भी चले जाएँ हम उनका कल्याण अवश्य करेंगे |
कबीर साहिब जी ने कहा अब हम
बांगर देश में जायेंगे हम से बिछुड़ चुके हंस उस देश में गये हैं | हम हरियाणा
प्रांत के छुड़ानी धाम में शरीर धारण करेंगे और वहां से मुक्ति का द्वार सदा के लिए
खोल देंगे | सद्गुरु जी के ऐसे वचन सुन कर
अर्जुन और सुर्जन को विश्वास हो गया की इन सभी हंसों का कल्याण अवश्य हो जाएगा |
सतगुरु जी के वचनों पर दृढ़
विशवास रखते हुए सुर्जन ने अपने मन में दृढ़ निश्चय किया की मैं सतगुरु जी के दुसरे
रूप के अवश्य दर्शन करूँगा | कबीर साहिब जी के स्वधाम पधारने पर सुर्जन काशी से
चलकर हरियाणा प्रांत के जिल्हा रोहतक के हमाऊपुर गाँव में पहुँचे | आप के सद्गुणों
और उपदेश से प्रभावित होकर उस गाँव का एक जाट उनका भक्त बन गया और जाट के अनुरोध
पर सुर्जन जी उनके चौबारे में ठहर गए | सुर्जन जी ने जाट को बताया की हमारे सतगुरु
जी का इस देश में अवतार होने वाला है हम उन्हीं के दर्शन करने के लिए यहां आए हैं
| इस तरह उस जाट के घर रहते रहते दौ सौ वर्ष में उस जाट की पांचवी छठी पीढ़ी आ चुकी
थी | सुर्जन जी योग के द्वारा अपने प्राणों को दशम द्वार के ऊपर ले कर स्थित कर
लेते जिससे की उनकी मृत्यु नहीं हुई |
एक दिन शौचादि क्रिया के
बाद सुर्जन जी तलाब पर स्नान करके वस्त्र पहन रहे थे तो सतगुरु गरीबदास जी की वाणी
के शब्द आप जी के कानों में पडे | जब अंतर्मन में उन शब्दों का विचार किया तो वह
जान गये की यह शब्द सतगुरु जी के ही हैं | उन्हों ने देखा की मार्ग से जाने वाला एक
व्यक्ति
मति देंदी बालिम
यानें नूं || टेक ||
गीता और भागौति
पढ़त हैं, नहीं बूझे शब्द ठिकानें नूं || १||
मन मथुरा दिल
द्वारा नगरी, कहां करैं बरसानें नूं || २ ||
जब फुरमान धनी का
आया, को राखे घरि जानें नूं || ३ ||
जा सतगुरु का
शरनां लीजै, मेटै जैम तलबानें नूं || ४ ||
उत्तर दक्षिण
पूरब पच्छिम, फिरदा दाणे दाणे नूं || ५ ||
सर्व कला सतगुरु
साहिब की, हरि आये हरियानें नूं || ६ ||
जम किंकर का राज
कठिन है, नहीं छाडै राजा राणें नूं || ७ ||
याह दुनिया दा
जीवन झूठा, भूलि गये मरि जानें नूं || ८ ||
शील संतोष विवेक
विचारो, दूरि करो जुलमाणे नूं || ९ ||
ज्ञान दा राछ
ध्यान दी तुरिया, कोई जानैं पाण रिसाणें नूं || १० ||
वज्र कपाट सतगुरु
नैं खोले, अमी महारस खानें नूं || ११ ||
गरीबदास शुन्य
भँवर उड़ावै, गगन मंडल रमजाणें नूं || १२ ||
(राग
काफी )
यह शब्द गाते हुए जा रहा है
| सुर्जन जी ने उसे पास बुलाया और पूछा की यह शब्द किसका है और उसने कहां से सिखा
| इसपर उस व्यक्ति ने बताया की मैं भिदरायण गाँव का हूँ और मेरे ससुराल के गाँव
छारा के लोगों से मैंने यह शब्द सिखा है | वैसे यह शब्द छुड़ानी गाँव में प्रकट हुए
महापुरुष गरीबदास जी का है | उन्होंने बहुत सी अनुभवात्मक वाणी की रचना की है |
सुर्जन जी जान गए की सतगुरु कबीर साहिब जी अवतार ले चुके हैं | यह बात उन्होंने
अपने सेवकों से कही |
उसी दिन आप अपने कुछ सेवकों
को साथ लेकर दोपहर के बाद छुड़ानी पहुँचे | जब सतगुरु गरीब दास जी के दरबार में
प्रवेश करने लगे तो गद्दी पर आसीन सतगुरों की नजर सुर्जन जी पर पड़ी | सतगुरु जी ने
आश्चर्य के साथ कहा “ अरे सुर्जन दास ! तुमने इस जीर्ण शीर्ण चोले को अब तक ओढ़ रखा
है” सुर्जन जी ने चरणों में गिर कर दण्डवत प्रणाम किया | उनकी आँखों से प्रेम के आँसूं
छलकने लगे | सतगुरों के दर्शन की खुशी से दिल भर आया | सतगुरों ने प्रेम भरे शब्दों से आश्वासन देते हुए कहा “पंछी !
धैर्य धर और उठकर बैठ जा” | वह आप जी के सन्मुख बैठ गए | बन्दीछोड जी ने कहा “
पंछी ! पुराने शरीर को छोड़ देना चाहिए | इसे रखकर कोई लाभ नहीं एक दिन तो छोड़ना ही
पड़ेगा” | सुर्जन जी हाथ जोडकर बोले मुझे इस काया से कोई मोह नहीं यह तो आप जी के
दर्शन करने के लिए रखी थी | आप के दर्शन करके मेरा मनोरथ पूर्ण हो गया अब मैं इस
देह हो त्याग दूंगा | इसके पश्चात सुर्जन जी महाराज जी के पास ही ठहर गए | सतगुरु
जी के दर्शन करके जब मन तृप्त हो गया तो सुर्जन जी ने अपने शरीर का छुड़ानी में ही
त्याग कर दिया | अत: गरीब दास साहिब जी कबीर साहिब जी का ही अवतार थे |
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