सतगुरु गरीबदास
जी का मथुरा प्रस्थान
छुडानी से कुछ ही दुरी पर आग्नेय दिशा की तरफ, खेड़का
और दुलेह्ड़ा गांवों के मध्य में निम्बार्काचार्य संप्रदाय के वैष्णवों का एक
प्राचीन सिद्धपीठ है | उस मठ के महंत स्वामी गैबीदास जी सतगुरु गरीबदास जी के
समकालीन थे | महंत गैबीदास जी का सतगुरु जी के साथ बहुत प्रेम था | वह महीने में
एक दो बार सतगुरु जी से मिलने अवश्य आ जाते और अध्यात्मिक विषय पर चर्चा करते | गैबीदास
जी कृष्ण उपासक थे और साल में एक बार वृन्दावन जाकर कृष्ण जी के दर्शन जरूर करते |
एक बार आपने सतगुरु जी से अनुरोध किया की इस बार
आप झूलों के दिनों में हमारे साथ वृन्दावन अवश्य पधारें | सतगुरु जी ने कहा की
हमारी तीर्थ करने में कोई आस्था नहीं है और साखी उच्चारण की –
गरीब अठसठ तीरथ भ्रमना, भटक मुवा
संसार |
बारहबानी ब्रह्म है जाका करो विचार ||
लेकिन गैबीदास जी नहीं माने और बहुत ज्यादा
प्रेम पूर्वक आग्रह करने लगे | गैबीदास जी के प्रेम को देखते हुए सतगुरु जी
वृन्दावन जाने को मान गए | समय आने पर सतगुरु जी ने संतों, भगतों तथा महंत गैबीदास
जी के साथ मथुरा को प्रस्थान किया | रास्ते में पडने वाले गाँव के वासियों को
सतगुरु जी ने अपनी वाणी, सतसंग और उपदेश के द्वारा कृतार्थ किया |
मथुरा पहुंच कर सभी गैबीदास जी के संपर्क के एक
आश्रम जो की मानसी गंगा पर स्थित है, वहां पर ठहर गए | गैबीदास जी ने सतगुरु जी को
कृष्ण भगवान के मंदिर की परिक्रमा के एक छोर पर बने भवन में ठहराया | एक दिन
सतगुरु जी ने देखा की एक वैरागी साधू दण्डवत प्रणाम करता हुआ ठाकुर के मन्दिर की
परिक्रमा कर रहा है | सतगुरु जी ने उससे पूछा की तुम ऐसा क्यूँ कर रहे हो ? तो उसने कहा की ऐसा करने
से मनुष्य सर्पादी तिर्यक योनियों में नहीं जाता | सतगुरु जी बोले मान लो ऐसा करने
से तुम सर्पादी तिर्यक योनियों से बच भी गए तो और जो कई प्रकार की श्वान, शूकर और
गर्दभादी नीच योनियाँ हैं उन सब से कैसे बचोगे ? कोई ऐसा उपाय क्यूं नहीं करते की
सभी योनियों से एक साथ छुटकारा मिल जाए ? साधू निरुत्तर हो कर वहां से चला गया और
उस मन्दिर के मठाधीश से जाकर कहने लगा की मन्दिर के आंगन में एक श्वेत वस्त्र धारी
व्यक्ति ठाकुर जी की निंदा कर रहा है | इसपर मठाधीश गुस्से से आग बबूला हो उठा |
उस समय गैबीदास जी भी वहीँ पर मौजूद थे | वह जान गए की वह व्यक्ति और कोई नहीं
बल्कि सतगुरु गरीबदास जी हैं | गैबीदास जी मठाधीश से बोले की वह व्यक्ति कोई
साधारण व्यक्ति नहीं बल्कि छुड़ानी से आए उच्चकोटि के महापुरुष हैं | कृपया आप
उन्हें कुछ ना कहें, कहीं ऐसा न हो की वह रुष्ट हो जाएं और आप को कोई अभिशाप दे
दें | इतना सुनते ही मठाधीश शांत हो गए और
गैबीदास जी से कहने लगे की अगर ऐसा है तो कृपया आप उन्हें यहां ले आएं हम भी उनसे
मिल लेंगे | गैबीदास जी ने अनुरोध पर सतगुरु जी मठाधीश से मिलने गये | मठाधीश ने
सभी साधुओं के साथ उठकर आप का स्वागत किया और गद्दी पर सतगुरु जी को बिठाया और आदर
सत्कार किया | फिर मठाधीश जी ने सतगुरु जी से कई प्रश्न करते हुए पूछा | आप कहां
निवास करते हैं ? आपका तीर्थ कौन सा है ? आप किस देवता की उपासना करते हैं ? आपकी
रहनी करनी क्या है ? आप किसके शिष्य हो ? इत्यादि अनेक प्रश्न एक साथ पूछ डाले |
तब वहां पर बंदिछोड गरीबदास जी ने “ एकता उपजनि” ग्रन्थ का उच्चारण किया | यथा
अवधू हम तो प्रपट्टन
के वासी।
तीरथ जांहि न
देवल पूजौं, ना वृंदावन काशी ॥१॥
ऐसा दर्पण मंझि
हमारे, हम दर्पण के माहीं |
ऐंनक दरिया
चिशमें जोये, नूर निरंतर झांही ||२||
रहनी रहै सो
रोगी होई, करनी करै सो कामी |
रहनी करनी से
हम न्यारे, ना सेवक ना स्वामी ||३||
इन्द्री कसता
सोई कसाई, जग में बहै सो बौरा |
ऐसा खेल बिहंगम
हमरा, जीतो जम किंकर जौरा ॥४॥
ठाकुर तो हम
ठोक जराये, हरि की हाट उठाई।
राम रहीम मजूरी
कर है, उस दरगह में भाई ॥५॥
शेष महेश गणेशर
पूजैं, पत्थर पानी ध्यावैं ।
रामचंद्र दशरथ
के पूता, से कर्ता ठहरावैं ॥६॥
एक न कर्ता दोय
न कर्ता, नौ ठहराये भाई ।
दशमा भी दुंदर
में मिल सी, सत्य कबीर दुहाई ॥७॥
(यहां पर कुछ ही वाणी दि
गई हैं | सतगुरु जी और मठाधीश के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए वह एकता उपजनि ग्रन्थ
नामक वाणी में संग्रहित हैं | पूरा पढ़ने हेतू ग्रन्थ साहिब देखें |)
इस तरह सतगुरु जी ने वहां
पर एकता उपजनि ग्रन्थ का उच्चारण किया | सतगुरु जी की मधुर वाणी सुनकर मठाधीश को
सच्चे ज्ञान की प्राप्ति हुई उनका मन शांत हो गया और वह चुप रह गए |
मथुरा में गैबीदास जी के
पहचान के एक महंत परशुराम जी थे जो मथुरा के बाहर वाले आश्रम में रहते थे |
उन्होंने सतगुरु गरीबदास जी की महिमा गैबीदास जी और अन्य कई लोगों से सुन रखी थी |
उन्होंने अटकलीदास, रघुवर दास इत्यादि अनेक साधुओं से सतगुरु जी की शक्ति के बारे
में सुन रखा था और तभी से उनके मन में सतगुरु जी के दर्शन करने की अभिलाषा थी
| जब गैबीदास जी ने उन्हें बताया की
सतगुरु जी मथुरा में आए हुए हैं तो वह अती प्रसन्न हुए | और उनका मन सतगुरु जी के
दर्शन करने को ललायित हो उठा | महंत परशुराम जी ने तुरंत अपने एक शिष्य को गैबीदास
जी के साथ भेजा और कहा की आप हमारी तरफ से नम्रता पूर्वक सतगुरु गरीबदास जी से
प्रार्थना करें की आप कल का भोजन हमारे आश्रम पर करें | महंत जी के शिष्य ने
सतगुरु जी के पास पहुंच कर नम्रतापूर्वक निवेदन किया तो सतगुरु जी ने महंत जी के
शुद्ध भावों को जानकर निमंत्रण स्वीकार किया | उधर महंत परशुराम जी ने मन ही मन
विचार करके यह भावना बनाई की यदि सचमूच ही वह सच्चे महापुरुष हैं तो मुझे कृष्ण
रूप में दर्शन देकर कृतार्थ करें |
दुसरे दिन महाराज जी अपनी
नीली घोड़ी पर सवार होकर सभी संतों और भक्तों सहित महंत जी के आश्रम की तरफ चल दिए
| जब मण्डली आश्रम के नजदीक आई तो महंत जी ने देखा की सतगुरु जी घोड़ी की पीठ से एक
हाथ ऊपर हवा में बैठे हुए हैं | इसपर महंत जी को
विश्वास हो गया की निश्चित ही यह कोई उच्चकोटि के महापुरुष हैं | आश्रम
पहुँचने पर जब सतगुरु जी घोड़ी से उतरे तो सतगुरु जी ने महंत जी को साक्षात कृष्ण
रूप में दर्शन दिए | अपने इष्ट देव के साक्षात दर्शन करके महंत जी सतगुरु जी के
चरणों में गिर पड़े और साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और प्रेमपूर्वक आदर सत्कार करके
आश्रम में लेजाकर भोजन कराया | भोजन के उपरान्त संतों ने मधुर वाणी में अन्नदेव की
आरती गाई जिसे सुनकर वहां मौजूद सभी जन बहुत आनन्दित हुए | फिर महंत जी सतगुरु जी
को अपनी गद्दी स्थान पर ले गए और गद्दी पर बिठाकर सतगुरु जी का पुजन किया और
सतगुरु जी के आगे भेंट रखकर नमस्कार किया | सतगुरु जी को प्रसन्न जानकर महंत जी ने
नम्र निवेदन किया कि भगवन आप अपने मुखारविंद से श्री कृष्ण जी की लिए कोई स्तोत्र
गाएं | सतगुरु जी ने महंत जी के शुद्ध भाव को देखते हुए उनके अहल्लाद के लिए मधुर
वाणी में कृष्ण स्तोत्र का उच्चारण किया | यथा
हरि हरि हरि
हरि पारब्रह्म परमेश्वरं |
पुरुषोतम
परमानन्द नन्दं | आनंद कन्दं यशोदा नन्दं ||१||
गोविन्द दीना
नाथ, दुःख
भन्जनं।
भक्त वत्सल जग
वन्दनं जग जीवनं ||२||
जगन्नाथं काटन
दुख द्वन्द फंदनं।
करुणामई कमल
नैंनं, कृपा
सिंध ॥३॥
सर्व चेतनं
पूर्ण कर्तार किशोरं। गुणनिधानं गोकल चन्दं |
मधुसूदनं मदन
मोहनं। मुरलीधर सर्व सोहनं ॥४॥
मेघ श्याम
मूर्ति मन भावनं । माधौ मुकन्दं रामरूपं |
राधावरं
गोवर्धनं कर पर धरं रंगनाथं | हृषी केशं | गुन गावत भयौ आनंदं ||५||
जन दास गरीब जस
सुनि सुनि। लागि रही अंतरि धुनि।
वासुदेव
वनमाली। बृजपति प्रभु दीन बन्धू ||६||
महंत जी ने प्रसन्न होकर इस
स्तोत्र को स्मारक रूप में लिख लिया | फिर सतगुरु जी ने महंत जी से विदा ली और
अपने निवास स्थान पर पहुंच गए | सतगुरु जी की आज्ञा से सभी ने घूमकर मथुरा
वृन्दावन का दर्शन किया | झूले समाप्त होने के पश्चात महाराज जी गैबीदास जी को संग
लेकर कई दिनों के पश्चात छुडानी लौट आए |
|| सत साहिब ||
No comments:
Post a Comment