बन्दीछोड़ आचार्य
श्री गरीबदास जी ने अपने वाणी ग्रंथ में “पारख के अंग” मे गुरूदेव कबीर साहिब जी की जीवन लीला संक्षेप में
वर्णन की है। कबीर साहिब जी के समय मे भारत में मुगल साम्राज्य था। यहां का
बादशाह सिकन्दर लोदी था, जो इस्लाम धर्म का कट्टर समर्थक था परन्तु श्री कबीर साहिब
जी की महिमा देखकर इनका पक्का अनुयायी बन चुका था। अपने मन का भ्रम दूर करने के लिए
सिकन्दर लोदी ने 52 बार श्री कबीर
साहिब जी की परख (परीक्षा) की, अंत में हारकर उसे महाराज जी का लोहा मानना ही पड़ा। एक बार
श्री कबीर साहिब जी ने राजा सिकन्दर को एक कौतुक दिखाया:-
सहज मते सतगुरू गये, शाह सिकन्दर पास।
गरीबदास आसन दिया, संग तहाँ रैदास।।
श्री कबीर साहिब जी काशी में रहते थे, एक दिन सहज में ही
उनकी मौज हुई, श्री रैदास जी के
साथ घूमते हुए सिकन्दर के दरबार में पहुंच गये। बादशाह ने महाराज जी का स्वागत
किया तथा सुन्दर आसन पर बैठाया। बादशाह और सभी दरबारी श्री कबीर साहिब जी के समक्ष
दरबार में बैठे थे।
पग ऊपरि जल डार करि, हो गये खड़े कबीर।
गरीबदास पंडा जरया, तहां परया योह नीर।।
अकस्मात् ही कबीर साहिब जी अपना पानी का लोटा हाथ में लेकर आसन से उठ खड़े
हुए और लोटे का पानी अपने पावों पर डाल दिया। दोनों हाथ
ऊपर उठाकर हरि हरि का शब्द उच्चारण किया। इधर जगन्नाथ पुरी (उड़ीसा) में जो महान
तीर्थ है, वहां का एक पुजारी
था। अचानक एक मिट्टी के बर्तन में पड़ी आग उसके पांव पर गिर गई। इससे पहले कि उसका
पांव आग में जल जाता, तत्क्षण श्री कबीर साहिब जी ने वहां प्रगट होकर लोटे का जल
पुजारी के पांव पर डाल दिया, आग बुझ गई।
जगन्नाथ जगदीश का, जरत बुझाया पंड।
गरीबदास हर हर करत, मिटया कलप सब दंड।।
जगन्नाथ जी के पुजारी का पांव जलने से बच गया। वहां भी श्री
कबीर साहिब जी ने हरि हरि शब्द का उच्चारण कर पंडित जी के पांव की सारी पीड़ा हर
ली।
शाह सिकन्दर कूं कह्या, कहाँ किया योह
ख्याल। गरीबदास गति को लखे, पंड बुझया तत्काल।।
सिकन्दर लोदी ने कबीर साहिब से दरबार में खड़े होकर अपने
पांवों पर लोटे का जल डालने का कारण पूछा। कबीर साहिब जी तो चुप रहे परन्तु श्री
रैदास जी बोले, बादशाह तुम इनकी गति
को नहीं जान सकते। जगन्नाथ के पुजारी का पाव आग में जलने वाला था, इन्होंने जल डालकर
आग को शान्त किया है। बादशाह बड़े आश्चर्य में पड़ गया कि मेरे दरबार में जल डाला
हुआ जगन्नाथ पुरी कैसे पहुंच गया। उसको संदेह हो गया।
तुरत ही पत्री लिखाय करि, भेज्या सुत्र सवार।
गरीबदास पहुंचे तबै, पंथ लगे दश वार।।
कबीर साहिब जी की इस लीला का पता लगाने के लिए बादशाह
ने तुरन्त ही एक पत्र लिखकर ऊंट सवार दूत को जगन्नाथ पुरी की तरफ रवाना कर दिया।
मार्ग बड़ा लम्बा था, दूत को वहां पहुचने में दस दिन लग गये।
जगन्नाथ के दर्ष करि, दूत पूछ है पंड।
गरीबदास कैसे जरया, बिथा पग हंड।।
जगन्नाथ तीर्थ के दर्शन करके बादशाह का दूत पुजारी के पास
पहुंचा। राजा का पत्र पुजारी को दिया और पूछा कि आपका पांव आग में जलने वाला था, इसका बचाव कैसे हुआ, यह सारी बात हमें
बताओ।
पंडा कहैं सु दूत से, या विधि दाझया पाँय।
गरीबदास अटका फुट्या, बैगही दिया सिराय।।
तब पंडित ने सारी बात दूत से कही कि अचानक आग का बर्तन फूट
गया, आग मेरे पांव पर गिर
गई, पाव जल जाने की
सम्भावना थी कि आग बुझा दी गई।
किन बुझाया मुझि कहो, सुनि पंडा योह पांव।
गरीबदास साची कहो, न कछु और मिलाव।।
फिर दूत ने कहा कि पंडित जी सारी बात मुझे खोलकर बताओ। यह
आग किसने बुझाई है। बात सच्ची बताओ, इसमें कुछ मिलावाट न करना क्योंकि यह बादशाह का हुक्म है।
पंड कहै सोई साच मानि, सुनो दूत मम बीर।
गरीबदास जहां खड़े थे, डारया नीर कबीर।।
पंडित जी बोले मैं सच्ची बात कहता हूं। उस समय यहां संत
कबीर जी खड़े थे उन्होने ही अपने लोटे का जल डालकर आग बुझाई है।
कहो कबीर कहां बसत है, कौन जिन्हो की जात।
गरीबदास पंडा कहै, ज्यूं की त्यूं ही
बात।।
दूत ने फिर पूछा कि वह संत कबीर जी कहां के रहने वाले हैं, उनकी क्या जाति है, तब पंडित जी बोले।
वै कबीर काशी बसै, जाति जुलहदी तास।
गरीबदास दर्शन करें, जगन्नाथ के दास।।
संत कबीर जी काशी में रहते हैं, उनकी जाति जुलाहा है, मैं जगन्नाथ जी के
मंदिर में उनका हर रोज दर्शन करता हूं। मैं जगन्नाथ जी के साथ-साथ उनका भी दास
हूं।
नित ही आवत जात है, जगन्नाथ दरबार।
गरीबदास उस जुलहदी कूं, पंडा लिया उबार।।
जगन्नाथ के इस मंदिर-दरबार में वह मुझे दर्शन देने हर रोज काशी
से यहां आते हैं। दरबार में उन्हें हर रोज देखता हूं, उन्हीं महापुरूशों
ने मेरा पांव जलने से बचाया है।
पंडे कूं पतीया लिखी, जो कुछ हुई निदान। गरीबदास
बीती कही, लिखि भेज्या
फुरमान।।
पंडित जी ने सारी बात दूत के हाथ पत्र के जवाब में सिकन्दर
लोदी को लिखकर भेज दी।
आये काशी नगर में, दूत कही सत गल।
गरीबदास इस जुलहदी की, बड़ मंजिल जाजुल।।
दूत ने काशी में आकर बादशाह को सारी बात ज्यों की त्यों बता
दी और कहा कि संत कबीर जी की गति बड़़ी अगम अगाध है, जिसका पार पाना कठिन
है अर्थात श्री रैदास जी का वचन सत्य है। जो जल यहाँ खड़े होकर इन्होंने अपने पांव
पर डाला था, उसी जल ने जगन्नाथ
पुरी में जाकर पण्डे की पांव की आग बुझाई है।
शाह सिकन्दर सुनि थके, या अचरज अधिकार। गरीबदास
उस जुलहदी का, नित करि हैं दीदार।।
सिकन्दर को यह जानकर निष्चय हो गया कि श्री कबीर साहिब जी
तो साक्षात सतपुरूश हैं। बादशाह की वहीं श्रद्धा हो गई। उसी दिन से सिकन्दर बादशाह
श्री कबीर साहिब के दर्शन करने हर रोज जाते थे। बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब ने अपनी वाणी
में सभी प्रसिद्ध मंदिरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त की है।
!! बोलो बन्दीछोड़
महाराज की जय !!
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