Friday, June 26, 2015

तेजपुंज के तख़्त पर सतगुरुदेव जी



बन्दीछोड़ गरीब दास साहिब जी अपनी वाणी में फरमाते है कि :
            उत्तम कुल कर्तार देद्वादश भूषण संग ।
                          रूप द्रव्य दे दया करिज्ञान भजन सत्संग ।।                                      हे प्रभू! आप मुझे अच्छा भक्तिमय कुल देंसाथ में अपना द्वादश नाम रूपी भुषण दें । आप मुझ पर दया करके सुंदर रूप़राम नाम का धऩअध्यात्मिक ज्ञान परमेश्वर का भजन और संतों का सतसंग देने की कृपा करें।

                                        यहां उत्तम कुल का तात्पर्य ऊचीं या श्रेष्ठ जाती से नहीं बल्कि ऐसे कुल से है जिसमें भक्तिमय वातावरण हो संतों महापुरूषों की सेवा होती हो। क्योंकी महाराज जी राग आसावरी में स्पष्ट कहते हैं की इस भ्रम में मत रहो की सिर्फ ऊंचे कुल ब्रह्मण में पैदा होने से ही भक्ति होगी 
संतो भर्म परौ मति कोई । ऊंचे कुल से भक्ति न होई ।।टेक।।
ऊंचे कुल में नाश होत है़
नीचा ही कुल दीजै । तपिया कूं तो दशर्न नाहींलोदी नालि पतीजै ।।

                                तीन वर्ष बित गए थे, सतगुरु ब्रह्म सागर जी भुरीवालो  का कोई पता नही था| सारी संगत उनको खोज रही थी सतगुरु ब्रह्म सागर जी भुरीवालो के शिष्य थे श्री हरबंस लाल जी वह भी अन्य भक्तो की तरह सतगुरु ब्रह्म सागर जी भुरीवालो  को खोज रहे थे।  पर उस समय तक उनको भी सफलता हाथ नही लगी थी | तभी एक दिन श्री हरबंस लाल जी को अपनी ससुराल बस्सी पठाना गए हुये थे क्युकी उनका साला एक वर्ष से बीमार पडा था  वंहा जाकर श्री हरबंस लाल जी अपने साले के पास बैठे हुये थे । तभी श्री हरबंस लाल जी का साला एक दम उठ खड़ा हुआ । जैसे की उसके शरीर में किसी प्रकार की हवा का प्रवेश हुआ था हरबंस लाल जी का साला उनकी तरफ देखकर बोला “बच्चू, तू हमारे को किधर खोज रहा है, तू हरिद्वार आ जा, हम हरिद्वार में है झोटे से हमारा युद्ध हुआ है यंहा से हम छुड़ानी धाम जायेंगे” इस प्रकार कह कर श्री हरबंस लाल जी के साले ने जोर से ताड़ी मारी और फिर बेहोंश होकर गिर पड़ा तभी श्री हरबंस लाल जी समझ गए थे कि ”मेरे सतगुरु ब्रह्म सागर जी भुरीवाले इसमे बोल रहे थे” और फिर श्री हरबंस लाल जी ने उनको दण्डवत प्रणाम किया। परन्तु यह सब देखकर श्री हरबंस लाल जी की सास घबरा गई और कहने लगी कि “मेरा बेटा पागल हो गया है” पर सतगुरु ब्रह्म सागर जी भुरीवालो की कृपा से थोड़ी ही देर में श्री हरबंस लाल जी के साले को होश आ गया और उसकी 1 वर्ष से चल रही बीमारी का भी अंत हो गया, अब वह बिलकुल ठीक था और पूर्ण रूप से स्वस्थ हो चूका था |   
                                           श्री हरबंस लाल जी को अब पूर्ण निश्चय हो गया था कि “सतगुरु जी हरिद्वार मे है” | श्री हरबंस लाल जी ने लुधियाना से कुछ सत्संगी और भी साथ लिये और अगले ही दिन रेल के द्वारा हरिद्वार पहुँच गये वंहा से श्री हरबंस लाल जी अन्य सत्संगियों सहित पंडित विशुद्दानंद आश्रम में पहुंचे | जब सभी भक्त आश्रम में पहुंचे तो देखा कि “सतगुरु जी का डॉक्टर इलाज कर रहे थे, क्युकी सतगुरु जी को बहुत गहरा जख्म हो गया था परन्तु सतगुरु जी को देखकर ऐसा बिलकुल नहीं लग रहा था कि उनको इतना घर जख्म है, क्युकी सतगुरु जी तो पंच भोतिक शरीर के सुख-दुःख से अलग थे उनको देख कर कोई यह कह ही नहीं सकता था कि “सतगुरु जी को इतनी गहरी चोट लगी है” उनके मुख से वही पहले वाला तेज चमक रहा था |
श्री हरबंस लाल जी ने जाकर सतगुरु जी को दंडवत प्रणाम किया और फिर वह महाराज जी के पलंग के पास बैठ गया तभी हरबंस लाल जी ने सतगुरु जी से कहा कि “बन्दीछोड़ ! आपको तो शेर सरीखे नमस्कार करते है फिर एक झोटे की क्या ताकत है जो आपको कुछ हानि पहुंचा सके यह आपने क्या लीला रची है, हे बन्दीछोड़ आपने यह क्या लीला रची है कृपा आप हमे बताये”तब सतगुरु जी ने कहा कि “यह संतराम का काल था। उसका पिछले जन्म का ऐसा कर्म भुगतान था, जिससे उसका शरीरांत भी हो सकता था, हमने उसका यह कर्म अपने शरीर पर लेकर उसका भुगतान कर दिया है | जब तक कर्म का भुगतान न किया जाये वह मिटता नहीं है| उसका भुगतान हर हालत में करना ही पड़ता है, यह प्रभु का बनाया नियम है, इसमे हम कोई दखल नही देते” |
                                         हरबंस लाल जी के उपर सतगुरु जी की बहुत कृपा थी भजन करते समय उनकी सुरति दशम द्वार में पहुँच जाती थी | एक दिन की बात है कि “हरबंस लाल जी सुबह गंगा के किनारे बैठ कर भजन कर रहे थे  उनकी सुरति टिक गई, शरीर की सुध न रही | दोपहर के भोजन का समय हो गया भोजन की घंटी लगी तो किसी भक्त ने आकर हरबंस लाल जी के कंधे को पकड़ कर लिया दिया जिससे उनकी सुरति विचलित हो गई | शरीर की सुध न रही, और वह नीचे गिर गया” |
                                            वंहा उपस्थित भक्तो ने हरबंस लाल जी को उठा कर सतगुरु जी के पास ले गए | सतगुरु जी ने कहा कि “इसके हाथों और पैरों में देशी घी की मालिस करो”  बाद में हरबंस लाल जी ने बताया की उनको ऐसा लगा की जैसे चार आदमी मेरे पास आये और कहने लगे कि “तुझे किधर जाना है”   मै बोला “मुझे सतगुरु जी के पास जाना है” | वह चार आदमी मुझे आकाश मार्ग से उठा ले गए |  आगे एक बहुत सुंदर ही महल था, जिसके अंदर मैं चला गया और अंदर जाकर देखा कि सतगुरुदेव जी एक तेजपुंज के तख़्त पर आसन लगाये बैठे थे उनके हाथ में एक छड़ी है और महाराज जी के सामने बहुत बड़ी संख्या में संगत बैठी हुई थी सतगुरु जी संगत को प्रवचनों के द्वारा निहाल कर रहे थे |
                          सतगुरु जी छड़ी को घुमाते तब उसमे से प्रकाश निकल रहा था | महल में भी चारो और प्रकाश ही प्रकाश था | सतगुरु जी के शरीर में से भी चारों तरफ से प्रकाश निकल रहा था | यह विलक्षण द्रश्य देखते-देखते हरबंस लाल जी को होश आ गया और वह उठ कर बैठ गया हरबंस लाल जी ने सतगुरु जी को दण्डवत प्रणाम किया और हाथ जोड़कर कहने लगा कि “हे बन्दीछोड़ महाराज आप वंहा पर कैसी लीला कर रहे है ओर यंहा कैसी अवस्था में लेटे हुए मैं आपको देख रहा हूँ” | तभी सतगुरुदेव जी बोले “खामोश,खबरदार ! अगर कोई बात करी तो उस बारे में”सतगुरु जी से ऐसे वचन सुनकर हरबंस लाल जी चुप हो गये | कुछ समय बाद श्री छुड़ानी धाम में समागम था, तो सतगुरु जी स्वस्थ हो कर छुड़ानी धाम चले गये                

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