मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः ।
मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है । जब मन संसारिक विषयों में डुबा (आसक्त) होता है तो बंधन का कारण होता है और विषयों से रिहत होने पर मुक्ति दिलाता है । मन को विषयों से रिहत करने के लिए इसे जितना पडता है । जिस ने मन को जीत लिया उसने सारा जग जीत लिया। लेकीन इस मन को जीतना बडा ही मुश्कील काम है। यह मन बहुत ही चंचल और बलवान है । एक क्षण में यहां है तो दुसरे ही क्षण विश्व के दुसरे कोने में पहुंच जाता है । गीता में अर्जुन भगवान श्री कृष्ण से कहते हैं की
चंचलं हि मनः कृष्णं प्रमाधि बलवद दृठम् ।
तस्याहं निग्रहं मन्ये वायोरिव सुदुष्करम् ॥
हे कृष्ण यह मन चंचल और बलवान है। इसका इसको वश में करना वायु को वश मे करने के समान दुषकर है ।
आचार्य श्री गरीबदास जी महाराज वाणी में मन को मृग यानी हिरण की उपमा देते हुए कहते हैं की मन चंचल हिरण की तरह इस संसार में पांच ज्ञानेन्द्रियों रूपी हिरणीयों के साथ घुम रहा है।
मन मिरगा खेत चरे रे, मन मिरगा खेत चरे रे ।।टेक।।
जाके संग पांच मिरगानी तांके नाल फिरै रे। …….
मन को कैसे जीता जाए ? इसके लिए मन को समझना जरूरी है ।मन क्या और कैसा है ?
यह मन इन्द्रियों और बुद्धि इन दोनों के मध्य में रजो गुण से युक्त अस्थिर वृत्ति से रहता है । शरीर में पांच तरह के प्राण (वायु) होते हैं जो शरीर में विशिष्ठ भागों में आश्रित होते हैं जैसे हृदय में प्राण, गुदा में अपान, नाभी में समान, कंठ में उदान और सम्पूर्ण शरीर में व्यान । इन सभी में एकसमान शुद्ध चंचलता निवास करती है जिसके कारण इनमें रज गुण प्रधान होता है । यह चंचलता बुद्धि के बाहर अहंकार के उपर (बुद्धि और अहंकार के बीच) स्थिर रहती है, इसे ही मन कहते हैं । यह मन वायु तत्व का केंद्र है । इस मन ने बुद्धि के द्वार को ठक्का हुआ है । इस मन के सहवास से ब्रह्म को जीव उपाधी प्राप्त होती है। यह मन माया का मुल कारण है ।जैसे आचार्य जी मन का अंग में कहते हैं की
गरीब मन ही माया मूल है, फूटया रतन अगाध । फिर उलटा मिलता नहीं, यौह मन आदि अनादि ।।२५।।
मन की अवस्था ऐसी है की मानो कोई बहुत बड़ा बहुमूल्य रत्न टुट गया हो, लेकीन बहुत यतन करने पर भी अपने मुल (आदि) रूप को प्राप्त ना होता हो । इसी अंग में और कहते हैं
गरीब, यौह मन गिरा आकाश तैं, हो गया चकना चूर । लख चौरासी मन बसी, गदहा कुत्ता सूर ।।४।।
गरीब, यौह मन गिरा आकाश तैं, हो गया धामाधूल । लख चौरासी मन बसी, पारब्रह्म गया भूल ।।५।।
आचार्य जी कहते हैं की यह समस्त संसार, चौरासी लाख योनीयां, अवतार, सुर, असुर, देवी, देवता सभी (परमात्मा के) मन से ही उत्पन्न हुए हैं । यथा
गरीब, एक मन का एक है, एकै मन अनेक । एकै मन विसतार है, धारै नाना भेष ।।१०।।
गरीब, यौह मन ब्रह्मा विष्णु है, यौह मन शंकर शेष । यौह मन नारद जानियो, या मन कूं आदेश ।।११।।
गरीब, यौह मन करता आप है, यौह मन नव अवतार । सुर असुरौं में खेलता, हरदम बारंबार ।।१२।।
गरीब, यौह मन कंसा केशि है, यौह मन रावण राम । यौह मन खेत्रपाल है, यौह मन पूजै धाम ।।१३।।
गरीब, यौह मन हिरणाकुश भया, यौह मन है प्रहलाद । यौह मन नृसिंह अवतरया, खेलै आदि अनादि ।।१४।।
बिक्रताई का अंग में भी कहा है
गरीब, मन पसर्या तिहूँ लोक में, नाना वर्ण खिलंत | पसरे का पसर्या रह्या, धारे भेष अनंत ||२३||
गरीब, यौह मन फूट्या ब्रह्म से, बहुरि मिल्या नहीं बाग | ऐसे मन में बासना, जैसे चखमख आग ||२४||
गरीब, यौह मन फूट्या ब्रह्म से, काछे बहुत बैराग | जैसा का तैसा रह्या, ले ले छापे दाग ||२५||
मन के कार्य कई तरह के होते हैं जैसे चिंतऩ, स्मरण, इन्द्रियों द्वारा लाए गए विषयों को ग्रहण करना, भाव, एकाग्रता , अंतर्दृष्टि इत्यादि। मन के ही कारण विषय वासनाएं प्रबल हो जाती हैं। आशा तृष्णा उत्पन्न करने वाला मन ही है । संकल्प विकल्प मन के ही कार्य है। यह मन बडा ही मसकरा है ।
गरीब, यौह मन मेरा मसकरा, रोज बिहंडै आय । मैं तो लाऊं बंदगी, पर द्वारे उठि जाय ।।७२।।
गरीब, यौह मन मेरा मसकरा, रोज बिहंडै आय । साधु संगति भावै नहीं, सुनकर ज्ञान रिसाय ।।७३।।
गरीब, यौह मन मेरा मसकरा, रोज बिहंडै आय । नेकी कदे न खाट हीं, बदी विधंस सुनाय ।।७४।।
गरीब, यौह मन मेरा मसकरा, रोज बिहंडै आय । प्रेम पियाला ना पीवै, पकिर हलाहल खाय ।।७५।।
गरीब, यौह मन मेरा मसकरा, माल बिराना लूटि । हक्क हिसाबी ना चलै, दरगह किस विधि छूटि ।।७६।।
और बिक्रताई का अंग में कहा है
गरीब, यौह मन भूल्या ब्रह्म कूँ, दुनिया देखन जाय | चोरी में चित देत है, सुनि सुनि भक्ति रिसाय ||२८||
गरीब, राम कहें राजी नहीं, लंगर शोख हठील | साहिब दर बहु दोष हैं, भर्म्या फिरै खलील ||२९||
इस शरीर में दो प्रकार के मन हैं एक खाखी मन अथार्त मैला मन और दुसरा नुरी अथार्त साफ शुध्द मन।
गरीब़, काया मांही दोय मऩ, इन में कौन हमार। को अमरापुरि जात है, को भरमै संसार ।।९३।।
गरीब, नूरी मन से मिल रहो, खाखी खारिज कीन। ज्ञान शब्द से मारिये़, पांच पचीसौं तीन ।।९४।।
मन के जितने भी अवगुण हैं उन्हें खाखी मन कह सकते हैं और शील, संतोष, दया, धर्म विवेक जैसे सब गुण नुरी मन के हैं। अच्छे गुणों से भरे मनुष्य का मन परमेश्वर के नुर से भर जाता है ।
गरीब, खाखी खेलै सब दिशा, नूरी निश्चल धाम। शील संतोष विवेक रख, जपि ले हरदम नाम।।९७।।
गरीब, खाखी रोडा बाट का, नूरी निर्गुण नूर । इस उस में बहु अंतरा, खाखी से रहो दूर ।।९८।।
गरीब, खाखी मन खैला भया, खाता है नित खेत । नूरी रखवाला रखो, हटकै प्रेम से हेत ।।९९।।
नुरी मन के उपर निज मन अथार्त सही, यथार्थ , मूल मन है जिसे साहिब, सतगुरू या परम पद भी कहा गया है | और इसी मन को प्राप्त करने को कहा गया है। इस निज मन से ही बाकी मन उत्त्पन्न होते हैं। जैसे
मन ही कीट पतंग भवंगा, मन जूंनी जगदीशं । मन के ऊपर निज मन साहिब, ताहि निवाऊं शीशं ।।१५।।
निज मन सेती यौह मन हूवा, धरि आया अनंत शरीरं । दासगरीब अभय अविनाशी, ता मिल रहे कबीरं ।।१६।। राग आसावरी
तथा
गरीब, निज मन ऊपर परम पद, राग रूप रघुवीर | दूजे की तो गमि नहीं, तहां वहां महल कबीर ||३१||
गरीब, निज मन सेती मन हुवा, मन सेती तन देह | देही से कुछ ना हुवा, नाहक लाई खेह ||३२|| पारख का अंग
हमारे अवचेतन मन में कई बार जो ख्याल चल रहे होते हैं उनका ज्ञान हमें नहीं होता | इसे महाराज जी सुक्ष्म मन की संज्ञा देते हुए सुक्ष्म जन्म का अंग में कहते हैं ।
गरीब, सूक्ष्म मनोरथ चलत हैं, पल पल मांहि अनेक | जहां जहां मन जात है, जेते हि धरि भेष ||३||
और
गरीब, मन मौले की जाति है, कोई न जाने भेव | बड़ लोझा झूझार है, सब देवन पति देव ||१६||
गरीब, मन ही मौला हो रह्या, अनगिन लोक उपाय | सप्तपुरी के देव सब, बहु विधि नाच नचाय ||१७||
और यह मन कहां रहता है |
गरीब, कौन मन कित रहत है, सतगुरु कहि समझाय | पांच तत्त कूँ छाड कर, कौन तत्त कूँ जाय ||१९||
गरीब, पांच तत्त मुकाम है, नौ तत्त का सैलान | अनदेखी भूमि जात है, जहां नहीं शशि भान ||२०||
और मन के स्वरूप के बारे में कहते हैं |
गरीब, कौन रंग को रूप है, कौन कँवल प्रकाश | सूक्ष्म मन कित रहत हैं, कौन धाम में बास ||४०||
गरीब, बिना रंग बीन रूप है, नौछावर का अंग | उर अनरागी बसत है, अविगत रूप बिहंग ||४१||
गरीब, हिरदे कँवल में बास है, बारह बानी बंध | सदा सर्वदा खेलता, मन हंसा निर्दुन्द ||४२||
आचार्य जी मूल ज्ञान में प्रश्न करते है की मृत्यु के पश्चात इस मन का क्या होता है ?
नौ आकार गये कहां भाई, तन छूटै मन कहां समाई ।
फिर आगे उत्तर देते हुए कहते है
घट मठ मरै मुक्ति नहीं पावै, महतत्व चीन्है शब्द समावै ।महतत्त मूल सार है भाई, तन छूटै मन तहां समाई ।।१०३।।
तथा
गरीब, मन मुर्ती मुक्त रमे, खेले बारंबार | मन हंसा तो अमर है, पिंडा जुग जुग छार ||१२||
गरीब, मरण जीवन तो भ्रम है, बुझि बिचारो ज्ञान | विष्णु महाभारत किया, हित्य एक न प्राण ||१३
(सामरथाई का अंग )
अथार्त मृत्यु के बाद भी मन नहीं मरता। मृत्य के बाद यह मन महतत्त ( प्रकृति) में समा जाता है। मरते समय मन जिस विषय का स्मरण करता है उसीके अनुसार उसकी गती होती है। अथार्त जिस प्रकार की इच्छा बासनाएं मन में होती हैं उसी के अनुरूप अगला जन्म मिलता है ।
इस मन को शुद्ध करने के लिए सबसे पहले अपने विचार बदलें। क्योंकी जिस तरह के हमारे विचार होते हैं वैसा हमारा मन बन जाता है़ | अपने मन के आधिन होकर वैसे ही हम कार्य करते हैं और उसीके अनुरूप हमारा व्यक्तित्व बन जाता है। आप जो भी विचार करते हैं उसका प्रभाव धिरे धिरे आप के अंतर मन पर पडने लगता है। क्या आपने कभी अपने विचारों को देखा है ? विचारों को देखना भी एक कला है। हम जब भी कोई विचार मन में लाते हैं तो तुरंत उसके अनुसार क्रिया भी कर देते है इसलिए हमें अपने विचार की बुराई को जानने का मोका ही नही मिल पाता।
जब आप एकांत में हो तो शांत चित्त हो कर किसी विषय पर सोचना शुरू करें और आप क्या सोच रहे है इसे देखते रहें। ऐसा प्रतित होगा मानो आप अपने विचार को देख रहे हो । जब आपको अपने विचार दिखाई देने लगेंगे तो उन विचारों में छुपी बुराई आपको दिखाई देने लगेगी। मानो आप की आत्मा आप से कह रही हो की तुम्हारे विचार कितने गंदे हैं । फिर आप चाहें तो अपने विचारों को सुधारकर अपने वश में करके अपना नया व्यक्तित्व बना सकते हैं ।
इसलिए मन को जीतने के लिए सबसे पहले अपने आपको अच्छे विचारों से भर लें | अच्छे लोगो की, संतों, महापुरूषों की संगत करें। अच्छे और शुभ कर्म करें। महाराज जी कहते हैं की
गरीब, सत सुकृत से जात हैं, मन के कोटि विकार | सत सुकृत नहीं छाडिये, सत सुकृत निज सार ||४०||(सारग्राही का अंग )
यह मन पांचों इन्द्रियों के द्वारा इस संसार में भटकता है | इनमें से नेत्र और कान मुख्य है। आप चाहें ना चाहें हर समय कानों में कुछ ना कुछ सुनाई पड़ता ही रहता है। जबतक आंखें खुली हैं तब तक कुछ ना कुछ देखती ही रहती हैं । मन के जितने भी विषय हैं उनमें से इन दोनो में मन सब से ज्यादा व्यस्त रहता है । दोनों में भी नेत्र यानी रूप विषय तो सब से विकट और उरझाने वाला है। कबीर जी ने तो नेत्रों को मन का निवास स्थान कहा है। यही कारण है की सभी संतों ने मन को वश में करने के लिए पांचों इन्द्रियों को वश में करने के लिए कहा है। इन्द्रिये निग्रहण के साधन कई तरह के है | आचार्य जी ने अपनी वाणी में कई जगहों पर इन्द्रिये निग्रहण और ध्यान के लिए अपनी दृष्टी को भृकुटी के मध्य या नासा के अग्र भाग पर स्थिर करने को कहा है।
गरीब, पांच पच्चीसौं उलटि करि, मन के मध्य समाय | मन को निज मन में रखै, तो साहिब नेड़ा पाय ||२९|| कथनी बिना करनी का अंग
गरीब, भृकुटि में लिपटाय दे, सहंस कँवल सूं बांधि | जे तूं शिष्य सुजान है, तो निश बासर शर सांधि ||११||
गरीब, भृकुटि भौंरा गूंज हीं, जा पौहपन करि लीन | फेर बहुरि निकसै नहीं, ज्यूं दरिया मध्य मीन ||१२||
एकांत स्थान में किसी एक आसन जैसे पदम आसन, सुख आसन इ. में बैठकर आंखों को आधी खुली रखते हुए नाक के अगर भाग पर केन्द्रित करें | ऐसा करने से आंखों को उनका विषय नहीं मिलता मन का एक अति व्यस्त मार्ग अवरूद्ध हो जाता है (नेत्र पुरे बंद इसलिए नहीं करते क्योंकी नेत्र बंद करने पर मन पुराने विषयों का स्मरण करने लगता है) । फिर ध्यान को अंदर की तरफ ले जाए जो ध्वनी सुनाई दे उसे ध्यान पुवर्क सुनने का प्रयास करें । या अपने नाम का जप करें ।इस तरह के अभ्यास से मन धिरे धिरे एकाग्र होने लगता है । ध्यान के दौरान अगर मन भटक भी जाए तो कोई बात नहीं जब वापिस याद आए तो ध्यान में लगा दिजीए ।
गरीब, जे मन गया तो जान दे, मनसा कूँ गहि लेह | फिर घर द्वारे आयसी, दीखे पाकरि लेह ||७०||
लेकीन हताश हो कर ध्यान मत छोडीए । कबीर जी कहते हैं
कबीर, जो मन गया तो जान दे, दृढ़ किर राख शरीर । बिन चढ़ाये कमान के, कैसे लागे तीर ।।१७।।
कबीर, मन चलता तन भी चलै, तांते मन को घेर । तन मन दोऊ बसि करै, होय राई सौं मेर ।।१८।।
मन को शुध्द करने का सब से सरल उपाय है सतसंग, संतों, गुरू की सेवा । गुरू के द्वारा जो ज्ञान आपको प्राप्त होगा वह मन की सारी मैल उतार देगा । इसलिए सच्चे गुरू की सेवा करके उन्हें प्रसन्न करके उनसे ज्ञान की याचना करनी चाहिए ।
अंत में महाराज जी की अमृतमय वाणी के द्वारा मोहित हुआ मैं उन्हीं के द्वारा खाखी मन को समझाने के लिए कही वाणी निचे लिख रहा हुं । जिस तरह सूर्य अंधकार को मिटा देता है उसी तरह महाराज जी की वाणी अज्ञान के अंधकार को मिटा देती है । जैसे जल तृष्णा को शांत कर देता है उसी तरह जो आचार्य जी की वाणी को पढता है उसकी संसारीक तृष्णा शांत हो जाती है । आप भी पढ़ें ।
रौह रौह रे मन मारौंगा, ज्ञान खडग सिंहारौंगा । डामा डोल न हूजै रे, तुझ को निज धाम न सूझै रे ।।
सतगुरू हेला देवै रे, तुझि भौसागर से खेवै रे । चौरासी तुरत मिटावै रे, तुझि जम से आन छुडावै रे ।।
कह्या हमारा कीजै रे, सतगुरू कूं सिर दीजै रे । अब लेखै लेखा होई रे, यह बहुरि न मेला कोई रे ।।
शब्द हमारा मानों रे, अब नीर खीर कूं छानों रे । तूं बहज मुखी क्यों फिरता रे, इब माल बिराना हरता रे ।।
तूं गोला जाति गुलामा रे, तूं बिसऱया पूरन रामा रे । अब डंड परै सिर तोही रे, तैं अगली पिछली खोई रे ।।
मन कृतघ्नी तू भड़वा रे, तुझे लागै साहिब कड़वा रे । मन मारौंगा मैदाना रे, सतगुरू शमशेर समाना रे ।।
अरे मन टूक टूक कर नाखूं रे, तूझे कुंज गली में राखूं रे । सिर काट हदीरा बांधौं रे, उलटा मेलों सर सांधौं रे ।।
अरे मैं तन मन काटि जलाऊं रे, दीखै जहां आग लगाऊं रे । अरे मन अजब अलामा रे, तैं बहुत बिगारे कामा रे ।।
बैराट कदे नहीं ध्याय रे, तैं सरबस मूल गंवाया रे । सब अजंन मंजन फोरया रे, टुक तार न चिसमां जोरया रे ।।
हैरांन हिवांनी जाता रे, सिर पीटै ज्ञानी ज्ञाता रे । हैरांन हिवांनी खेलै रे, सब अपने ही रंग मेलै रे ।।
हैरांन हिवांनी नाचै रे, कुछ ऊंच नीच नहीं बांचै रे । हैरांन हिवांनी काला रे, जम मार करै बेहाला रे ।।
निरबंध निरंतर खेलै रे, सतगुरू तुझ आंन सकेलै रे । गुलजार गली नहीं जाता रे , तूं विष के लडडू खाता रे ।।
तैं नौका नाव डबोई रे, मन खाखी भडुवा धौही रे । मन मार बिहंडम किरसूं रे, सतगुरू साक्षी नहीं डिरसूं रे ।।
अरे चढि़ खेत लरौं मैदाना रे, तुझ मारूंगा शैताना रे । डिढ की ढाल बनाऊं रे, तन तत्त की तेग चलाऊं रे ।।
काम कटारी ऐंचू रे, धरि बान विहंगम खैंचू रे । बुद्धि बंदूक चलाऊं रे, मैं चित्त की चखमख लाऊं रे ।।
मैं दम की दारू भरता रे, ले प्रेम पियाला जरता रे । मैं गोला ज्ञान चलाऊं रे, मैं चोट निशाने लाऊं रे ।।
सैल शरे में लाऊं रे, सतगुरू के लटका पाऊं रे । रे सुंन सिंजोइल पहरया रे, यौह बुद्धि का बख्तर गहरा रे ।।
तूं चाल कहां लग चालै रे, तूं निश दिन हिरदे सालै रे । मैं मारूंगा नहीं छाडू रे, खाखी मन घर से काढूं रे ।।
तैं हाटि पटन सब लूटया रे, तूं आठों गांठे झूठा रे । तैं बसती नगर उजारया रे, खाखी मन झूठा दारा रे ।।
तूं है मूलों का जाया रे, तूं अनंत जुगों नहीं धाया रे । तूं लख चौरासी खेला रे, अब हो सतगूरू का चेला रे ।।
मन मारूंगा मैदानी रे, अब कर सूं धूमा धामी रे । कोई खाखी मन कूं हेरै रे, कोई बाहर जाता फेरै रे ।।
यौह बहुरंगी नहीं बोलै रे, यौह भुवन चतुदर्श डोलै रे । यह आवत जात न दीखै रे, मन मानत नांही सीखै रे ।।
यह तीन लोक में फिरता रे, इस घेर रहे नहीं घिरता रे । यह मन किहये अक माया रे, इन बहुविधि दुंद मचाया रे ।।
यह माया चढ़ी अहेडै़ रे, हंसा चुनि खात निबेडै़ रे । यह मन माया का गौंना रे, नर कनक कामिनी सौना रे ।।
यह क्या मींहीं क्या मोटी रे, नर जानों सब ही खोटी रे । याह मन माया की जाली रे, याह निरगुण सरगुण डाली रे ।।
चल सुखसागर ले जाऊं रे, मन अग है देश दिखाऊं रे । कर सुख सागर अस्नाना रे, चलो देखो देश दिवाना रे।।(पूरा पढने के लिए आचार्य श्री गरीबदास जी की वाणी में मन का अंग पढ़ें | )
||सत साहिब ||
This article is provided by Dr.Ram Kumar Chauhan,Nashik(Maharashtra)
Sunday, April 17, 2011
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