प्रेम प्रीति की भक्ति जो,
पूर्ण भाग मिलाय
प्रभु को जिसने भी प्राप्त किया, प्रेमा भक्ति के द्वारा ही प्राप्त किया | शबरी,
मीरा, सूरदास, तुलसीदास जैसे अनेकों महापुरुषों ने प्रभु को प्रेम के द्वारा ही
प्राप्त किया | कबीर जी ने तो साफ ही कह दिया
कबीर, जोगी जंगम सेवड़ा, सन्यासी दरवेश |
बिना प्रेम पहुंचै नहीं,
दुर्लभ हरि का देश ||
यही सरल मार्ग है | भक्ति प्रेम का ही एक स्वरूप है। जब हम प्रभु से प्रेम करने लगते हैं, तो हमारा अन्तःकरण
द्रवीभूत होकर सर्वत्र व्याप्त ईश्वरीय सत्ता में सविकल्प तदाकार रूप धारण कर लेता है |
जबतक अन्तःकरण में प्रेम स्फुरित नहीं होता तब तक मनुष्य स्थूल पिंड मात्र है। जिस प्रकार वायु
के झोंकों के बिना जल में तरंगे (लहरें) उत्पन्न नहीं होती, उसी प्रकार जड़ शरीर में भरी चेतना में भावनाओं की तरंगें
तब तक नहीं फूटतीं जब तक आत्म-चेतना में
प्रेम का स्फुरण न हो। यह प्रेम जहाँ भी स्थिर हो जाता है। वहीं का आकार, गुण,
स्वभाव और सत्तात्मक रूप ग्रहण कर लेता है |
जिसके मन में प्रभु के प्रति, सतगुरु के प्रति थोड़ा
सा भी प्रेम उत्पन्न हो जाता है उसे सतगुरु स्वयं आकर उभार लेते है, उसे उपदेश
देकर जीवन का उद्धार कर देते हैं | ऐसे ही एक भक्त तिलोका का उद्धार आचार्य गरीबदास
जी ने किया |
तिलोका रोहतक जिल्हे के भागी गाँव का रहना वाला
था | आचार्य जी और उनकी वाणी की ख्याति उन दिनों दूर दूर तक फैल चुकी थी | महराज
जी की ज्ञान की गंगा से तृप्त होने के लिए दूर दूर से लोग आते थे | तिलोका ने लोगों
के मुख से सद्गुरु जी की महिमा सुनी तो उसके हृदय में आप जी के दर्शन करने की अभिलाषा
उत्पन्न होने लगी |
कहते हैं की प्रभु भक्त का उद्धार करने के लिए
कोई ना कोई निमित्त ढूंढ लेते हैं | हुआ यूं की एक दिन तिलोका के मामा ने एक
ब्राह्मण को किसी विशेष कार्य से तिलोका से मिलने भेजा | कार्य सम्बंधी बातें हो
जाने के पश्चात् सामान्य वार्तालाप होने लगा | बातों बातों में आचार्य जी की महिमा
का जिक्र हुआ तो ब्राह्मण ने कहा चौधरी !
उनकी महिमा अपरंपार है, मैं आपको अपनी
आँखों देखी घटना सुनाता हूँ | एक बार आचार्य जी अपनी शिष्य मंडली सहित अपने सेवक
तोषराम के निमंत्रण पर छारा गाँव में उसके
घर पधारे | महाराज जी ने सत्संग किया जिसमे बहुत भीड़ एकत्रित हुई | मैं भी सत्संग
सुनने गया और महराज जी के समक्ष कुछ दूरी पर बैठ गया | जब मैंने ध्यान पूर्वक उनकी
और देखा तो मेरे आशचर्य की कोई सीमा न रही | क्यूंकि उनकी पीठ के पीछे की दिवार पर
बनी मूर्ति उनके शरीर में से मुझे ज्यों की त्यों दिखाई दे रही थी | इससे मेरे
अंदर निश्चय हो गया की आचार्य जी का शरीर हमारे जैसा पार्थिव शरीर नहीं बल्कि
ज्योतिर्मय है | और आप साक्षात परमेश्वर हैं हम जीवों का उद्धार करने आये हैं |
इस घटना
को सुनकर तिलोका का मन अह्ल्लाद से भर गया और वह रोमांचित हो उठा | तिलोका कहने
लागा सचमुच आप धन्य हैं जिन्हें आचार्य गरीबदास जी के दर्शन करने का सौभाग्य
प्राप्त हुआ, उनकी वाणी सुनने और सत्संग करने का लाभ प्राप्त हुआ है | इस प्रकार
कहते हुए प्रेमावेश में आकर उसने ब्राह्मण के नेत्र धो कर पी लिए | कहा भी है
“जिन नैनों वह देखिया सो क्यों न पीवै धोय “
आचार्य जी के प्रति उमड़े प्रेम के कारण उसका मन
निर्मल हो गया, उसके अंदर की सुप्त भावनाएं फिर से जाग उठि | महाराज जी के प्रति
उसकी भक्ति दृढ़ होने लगी | कबीर जी कहा ही है की
“प्रेमी स्यौं प्रेमी मिलै, तो राम भक्ति दृढ़
होय”
वह मन ही मन विचार करने लगा की कितने शोक की बात
है की मैंने महाराज जी के आज तक दर्शन नहीं किये | इस क्षण भंगुर देह का क्या
भरोसा की यह कब मृत्यु को प्राप्त हो जाए | यहि उचित होगा की मैं शीघ्र की उनके
दर्शन करके, उनसे उपदेश लेकर अपनी आत्मा
का उद्धार करूं | रात्रि का भोजन करने के पश्चात् उसने मन में संकल्प किया की कल
छुडानी जा कर महाराज जी के अवश्य दर्शन करूंगा | और महाराज जी के बारे में सोचते
सोचते खलिहान में सो गया | तिलोका के प्रेम के वश होकर महाराज जी ने रात को ब्रह्म
मुहूर्त के समय उसे स्वपन में दर्शन देकर उपदेश दिया और उसके अंदर आत्म ज्योति को
प्रकाशित कर दिया | सुबह उठने पर रात के स्वप्न को याद करके उसका मन अति प्रसन्न
हुआ और रोम रोम पुलकित हो उठा | उन्होंने
अपने घर वालों को बताया की आज मैं छुडानी महाराज जी के दर्शन करने जाऊँगा | घर
वालों ने काफी सझाया की बहुत काम बाकि है, अगले महीने दाने (अन्न) घर आ जाने पर
चले जाना, महाराज जी तब भी वहीँ मिलेंगे | लेकिन तिलोका जी नहीं माने और तुरंत
छुडानी को चल दिए |
छुडानी पहुंचकर आश्रम में जाकर अपनी सामर्थ्य
अनुसार कुछ भेंट पूजा आगे रखकर बन्दीछोड जी को दण्डवत प्रणाम किया और सत साहिब
बुलाई | तिलोका जी ने जब ध्यान से महाराज जी को देखा तो चकित रह गया रात को जो जिस
मूर्त ने उसे स्वप्न में दर्शन दिए थे हुब हु वही मूर्त उसके सामने विराजमान थी |
इससे वह बड़ा चकित हुआ क्यूंकि उसने पहले कभी भी महाराज जी के दर्शन नहीं किये थे |
फिर उन्होंने नतमस्तक होकर महाराज जी से अरदास की कि हे कृपा सिन्धु ! मैं एक पतित
नारकीय जीव हूँ | आप की शरण में आया हूँ | आप मुझे अपना अमूल्य उपदेश देकर अपना
कृपा पात्र बनाएं | महाराज जी ने कहा क्यों पंछी ! (महाराज जी प्रेम से इस संबोधन
का प्रयोग करते थे) उपदेश की अभी कोई कसर बाकि है ? हमने जो कुछ देना था रात को ही
दे दिया था | महाराज जी की यह बात सुनकर तिलोका अबाक रह गया | उसके अंदर दृढ़
निश्चय हो गया की यह सर्व अंतरयामी परमेश्वर, बन्दीछोड हैं |
तिलोका जी फिर वापिस अपने गाँव नहीं गये सतगुरु
जी की सेवा में छुडानी में ही रहे | महाराज जी ने उनकी सेवा और लगन को देखकर उन्हें
साधू बाणा दे दिया और आप तिलोका से तिलोकदास बन गए | आगे चलकर यह काफी करणी वाले
संत हुए | इनके द्वारा लिखवाया हुआ ग्रन्थ कान्ह्गढ़ में स्थित है |
इस प्रकार आचार्य जी ने तिलोका के प्रेम को
देखते हुए उसका उद्धार किया |
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