Thursday, November 3, 2016

गोकुल गांव की, गुजरी गंवार

आचार्य श्री गरीबदास जी का यह सिद्धांत बड़ा महत्वपूर्ण है कि जीव का इष्टदेव में पूर्ण निश्चय  निश्चय होना चाहिए।  अगर परिपक्व निश्चय है उसमें किसी प्रकार की शंका का समावेश नहीं, तो ऐसे भाग्यशाली जीव के लिए नाम, ज्ञान, ध्यान आदि की जानकारी लेने की भी आवश्यकता नहीं है। प्राचीन इतिहास में हमें ऐसे बहुत उदाहरण मिलते हैं कि निश्चय वादी पुरुषों को भगवान यदा-कदा प्रकट होकर दर्श दिखा देते थे। बिना ज्ञान ध्यान के एक निश्चय का दामन थाम कर बहुत से जीव भवसागर में पार हो गये। बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब जी फरमाते हैं:-

गरीब, निश्चयै गोकुल गुजरी, बिनही बेड़े पार। पंडित के दिल दुई थी, गुरूवा रह गये वार।।
निश्चय रख कर गोकुल गांव की गंवार गुजरी राम राम करती हुई नदी से पार हो गई और प्रतिदिन का कथावाचक ज्ञानवान विद्वान पंडित नदी से पार न हो सका क्योंकि उसके मन में एक निश्चय नहीं था। वह शंकावादी था बन्दीछोड़ गरीबदास साहिब जी भक्तमाल  में इसी गुजरी की कथा इस प्रकार कहते हैं।
गोकुल गांव की, गुजरी गंवार। गई दूध बेचन, मथुरा नगर पार।।
गोकुल में एक गंवार ग्वालन रहती थी, जो प्रतिदिन नौका से यमुना पार करके मथुरा नगर में दूध बेचने जाती थी। यही उसका रोजगार था।
ग्यानी गुनी पांडे, ग्यान संवाद। नाम ही नौका, यौही मंत्र साध।।
एक दिन जब कि वह गुजरी मथुरा में दूध बेच रही थी, तो उसकी नजर एक मंदिर में पड़ी, जहां एक विद्वान पंडित जी लोगों को कथा सुना रहे थे। उस गुजरी ने कुछ समीप होकर पंडित जी की कथा को ध्यान से सुना तो, संयोगवश यहीं प्रसंग चल रहा था कि राम नाम रूपी नौका में बैठकर कोई भी भवसागर से पार हो सकता है और राम का नाम ही भवसागर से पार होने का महामंत्र है
गुजरी नगर दूध, बेच्या विचार। नाम ही नौका, मन में उचार।।
मथुरा नगर में दूध बेचती हुई भी गुजरी राम का नाम उच्चारण करती रही। उसे पूर्ण विष्वास हो गया कि जब राम का नाम जीव को इतने विशाल भवसागर से पार कर देता है, तो उसी राम नाम से इस छोटी सी यमुना नदी को पार करना तो कोई मुश्किल वाली बात नहीं है। इसे तो मैं सहज ही पार कर पाऊंगी। ऐसा करने से मेरा प्रतिदिन का नौका में आने जाने का किराया भी बचेगा। अतः पंडित जी ने मेरा बड़ा उपकार किया है, मैं इन्हें अपने घर भोजन कराऊंगी।
बहुर गई फेर पांडे के पास। चालो मिश्र गाम, तोरी मैं दास।।
गुजरी यह सोचकर पंडित जी के पास गई और प्रार्थना की कि ब्राह्मण देवता जी, मेरे गांव चलकर मेरा घर पवित्र करो और मेरे घर भोजन करो। मैं आपकी सेवक हूं।
पांडे कहै नाव, लावो जु घाट। स्वामी सेवक दोनों, चालैं जु बाट।।
पंडित जी उसके साथ चल पड़े। जब यमुना नदी के तीर पर पहुचे तो उस समय नौका दूसरे तीर पर जा चुकी थी, पंडित जी गुजरी से बोले कि नौका जब इस ओर आयेगी तो हम दोनों गुरू-शिष्य नौका में सवार होकर यमुना को पार करेंगे।
गुजरी कहै नाम, नौका चढो। सुनो मूढ़ पांडे, तुम काहे पढ़ो।।
गुजरी बोली पंडित जी राम की नौका में सवार होकर यमुना पार क्यूं नहीं करते, आप रोज कथा पढ़ते हैं फिर आपका पढ़ना और ज्ञान ध्यान किस काम का है। चलो राम नाम की नौका में बैठकर यमुना पार चलें।
पंडित कहे, नाम नौका कहां। बेथाह जमुना, हम इहां ही बहां।।
पंडित जी बोले, हे गुजरी, राम नाम की नौका यहां कहां है। यह तो यमुना नदी का अथाह जल है। इसमें पैर धरते ही हम इसके तीव्र प्रवाह में बह कर डूब जायेंगे।
गुजरी कहै, नाम नौका नजीक। दिल के दरिया बीच, चलना जो बीक।।
गुजरी बोली पंडित जी राम नाम की नौका तो हमारे दिल में ही है। वह कहीं दूर नहीं है। मन के विश्वास पर वह नौका विराजमान है। उस नौका में बैठकर तो पार होना कोई कठिन काम नहीं है।
गुजरी कहै, नाम नौका विमान। पल्लू न भीज्या, जू उतरी अमान।।
गुजरी कहने लगी पंडित जी राम नाम की नौका तो बड़ा सुन्दर विमान है, इसमें बैठकर पार होना तो बड़ा सहज है, ऐसे कहकर राम नाम का जाप करती हुई यमुना जल पर चलती हुई गुजरी नदी से पार हो गई। उसका कपड़ा तक भी न भीगा।
गुजरी कहै, नाम नौका कहया। पंडित गया, बूड पारे रहया।।
दूसरी ओर पहुंच कर पंडित जी को आवाज दी कि आप भी राम नाम का जाप करते हुए पार आ जाओ। परन्तु पंडित जी को विश्वास न था कि राम का नाम मुझे जल में डूबने नहीं देगा। जब उसने राम का नाम लेकर जल में पैर रखा तो पैर जल में डूब गया। अतः पंडित जी यमुना के पार ही खड़े रह गये और गुजरी निशंक होकर यमुना को पार कर गई। इसी निश्चय की ओट को लेकर वह राम नाम का जाप करती हुई, अंत समय भवसागर से पार हो गई।


विनती का अंग
कबीर, बिनवत हूँ कर जोरि कै, सुन गुरू कृपानिधान। संगत में सुख दीजिये, दया गरीबी दान।।
कबीर, करत हूँ बिनती, सुनो संत चित लाय। मारग सिरजनहार का, दीजे मोहि बताय।।
कबीर, क्या मुख ले बिनती करूँ, लाज आवत है मोहि। तुम देखत औगुण किये, कैसे भाऊँ तोहि।।
कबीर, साहिब तुम न बिसारियो, लाख लोग मिल जाहिं। हम से तुम कूं बहुत हैं, तुम से हम कू नाहिं।।
कबीर औगुण किये तो बहु किये, करत न मानी हार। भावैं बंदा बख्सियों, भावै गरदन मार।।
कबीर, औगुण मेरे बाप जी, बख्सो गरीब निवाज। जे मैं पूत कपूत हूं, बौहर पिता कूं लाज।।
कबीर, मैं अपराधी जन्म का, नख षिख भरा विकार। तुम दाता दुख भंजना, मेरी करो संभार।।
कबीर, सुरत करो मम सांईया, मैं हूँ भौजल माहिं। आपै ही बहि जाऊँगा, जो नही पकड़ो बाँह।।
कबीर, अबके जो साईं मिलै, सब दुःख आखूं रोय। चरणौ ऊपर सिर धरूं, कहूँ जो कहना होय।।
कबीर, सांई मिलहैंगे, पूछेंगे कुसलात। आदि अन्त की सब कहूँ, उर अन्तर की बात।।
कबीर, मुझ में इतनी षक्ति कहाँ, गाऊँ गला पसार। बंदे को इतनी घनी, पड़ा रहूं तोहि द्वार।।
कबीर, अंतरयामी एक तूं, आत्म के आधार। जो तुम छाड़ौ हाथ से, कौन निबाहन हार।।
कबीर, भवसागर भारा भया, गहरा थाह अथाह। तुम दयाल दया करो, तब कुछ पाऊँ थाह।।
कबीर, सतगुरू बड़े दयाल हैं, संतन के आधार। भौसागर अथाह से, खेव उतारै पार।।
कबीर, मुझ में गुण एको नहीं, जानराय सिरमौर। तेरे नाम प्रताप से, पाऊँ आदर ठौर।।
कबीर, सांई केरे बहुत गुन, औगुन कोऊँ नाहिं। जे दिल खोजूँ आपना, सब औगुन मुझ माहिं।।

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