Tuesday, December 6, 2011

निर्गुण सर्गुण


आचार्य श्री गरीबदास जी की वाणी को जब कोई पहली बार पढ़ता है तो कुछ लोगों को वाणी में कुछ विरोधाभासी बातें दिखाई देती हैं । उदाहरण के लिए महाराज जी निर्गुण और सरगुण के बारे मे ‘ब्रह्म कला’ में कहते हैं ।

निर्गुण सरगुण दहूँ से न्यारा, गगन मंडल गलतानं | निर्गुण कहूँ तो गुण किन्ह कीने, सरगुण कहूँ तो हानं ||४७||

जिसका शाब्दिक अर्थ है की परमेश्वर निर्गुण और सरगुण दोनों से अलग है वह आकाश की तरह सर्व व्यापक है । अगर परमेश्वर को निर्गुण कहता हूं तो यह प्रशन उठता है की जब वह खुद ही निगुर्ण है तो उससे गुण कैसे उत्पन्न हुए ? और अगर परमेश्वर को गुणों से युक्त कहता हूं तो परमेश्वर की हानि होती है ।
इसी विषय पर ‘आदि रत्न पुराण योग’ में कहते हैं ।
गरीब, निर्गुण सरगुण एक है, दूजा भ्रम विकार | निर्गुण साहिब आप है, सरगुण संत विचार ||८७||


जिसका शाब्दिक अर्थ है की निर्गुण और सरगुण परमेश्वर दोनों एक ही है । इन्हें दुसरा (अलग) कहना गलत है । निर्गुण साहिब को समझो और सरगुण संतों को समझो ।
शब्दों की दृष्टि से देखा जाए तो दोनों दोहे विरोधाभासी प्रतित होते है । लेकीन अगर तात्विक दृष्टि से देखा जाए तो कोई विरोधाभास नहीं रह जाता ।
इस विरोधाभास को समझने के लिए आचार्य जी ने जिस समय में अवतार लिया उस समय अध्यात्मिक जगत में प्रचलीत धाराओं को समझना होगा । महाराज जी के जन्म के पूर्व से ही भारत में दो धाराएं प्रचलीत रही हैं ।

एक सरगुण धारा तथा दुसरी निर्गुण धारा |

भगवान के सगुण स्वरूप के उपासक भगवान के विभिन्न अवतारों की पुजा करते हैं | उदाहरण के लिए जैसे भगवान राम और कृष्ण के गुणों का गान, कथा, कीर्तन, भजन इ. करना उनकी मूर्ती स्थापित करके उसकी विधीवत पुजा करना । रामयण और भागवत का पाठ करना । इ. तथा निरगुण धारा के उपासक परमेश्वर को सर्व व्यापक मानते हैं । उनके अनुसार परमेश्वर गुणों से रिहत है अलिप्त है। यह समस्त संसार प्रकृति (अव्यक्त /माया) से उत्पन्न हुआ है । परमेश्वर इस संसार से अलग है ऐसा वह मानते हैं। उसे प्राप्त करने के लिए योग साधना करके शरीर के भितर चक्रों को जागृत करके समाधी की परम अवस्था में निर्वाण प्राप्त करने पर जोर दिया जाता है । निरगुण धारा के उपासक भगवान के अवतारों को नहीं मानते ।

इन दोनों धाराओं के भ्रम को खत्म करने के लिए भगवान के निर्गुण और सरगुण स्वरूप को सर्व व्यापक परमेश्वर का रूप बताते हूए महाराज जी वाणी में लिखते हैं | (जैसे ‘राग गौडी’ में)

निरगुण सरगुण माया संतों, निरगुण सरगुण माया संतों | साचे सतगुरु भेद लखाया ||टेक||
निरगुण कहूँ तो संसा व्यापे, सरगुण कहूँ तो नेशा | शब्द अतीत अमर अनरागी, समझो शब्द संदेशा ||१||
निरगुण सरगुण है दो धारा, इन में बह्या सो डूब्या | दहनै निरगुण बामै सरगुण, दहौं के मध्य हम ढूँढया ||२||(राग गौडी)

निरगुण और सरगुण दानों भ्रम हैं । इन दोनों के बीच का रहस्य (भेद) सच्चे सतगुरू ने हमें समझाया है । टेक
अगर परमेश्वर को निरगुण कहें तो शंका होती है की जो खुद गुणों से रहित है उससे गुणों से युक्त संसार कैसे उत्पन्न होता है ? और अगर परमेश्वर को गुणों से युक्त मान लें तो बडी गडबड होती है। वह अमर, प्रेम स्वरूप परमेश्वर शब्द से परे है, तुम उस शब्द रूपी संदेश को समझो ।

परमेश्वर को निरगुण या सरगुण मानने वाली दो धारा हैं जो इनके चक्कर में फसता है वह डुब जाता है। निरगुण और सरगुण दानों के मार्ग अलग अलग हैं । हमने निर्गुण और सरगुण दोनों के बीच परमेश्वर को पाया है ।
तथा
भूल परी बौह भारी संतों, भूल परी बौह भरी | तातैं भटकि मुई संसारी ||टेक||
कोई सरगुन कोई निरगुन ध्यावै, दौंह के मध्य रमईया | अनंत कोटि जुग ऐसे बीते, शब्द न बुझ्या भईया ||१||
सरगुन काया निर्गुण माया, असटंगी अधकारी | इनके मध्य रमईया साहिब, अविगत अलख मुरारी ||२||
सरगुन शिला नदी और तीरथ, निरगुन है मन माया | शब्द ब्रह्म कूँ चीन्हत नांहीं, जिन्हि यौह ख्याल बनाया ||३||३३||(राग आसावरी)

संतों बहुत बडी भुल के कारण संसार भटक भटक कर मर रहा है। कोई परमेश्वर के अवतारों को पुज रहा है कोई परमेश्वर को निरगुण मान कर उसका ध्यान कर रहा है । जबकी इन दोनों में परमेश्वर रम रहा है । इसी चक्कर में अन्नत कोटि युग बित गए लेकिन इन्हें शब्द ब्रह्म की समझ नहीं पडी़ ।

सरगुण वालें देह (शरीर) धारी अवतारों के चक्कर में पडे हैं और निरगुण वाले माया (प्रकृती) के चक्कर में । जबकी इन दोनों में नाश रहित, जाना ना जा सकने वाला परमेश्वर रम रहा है। सरगुण को मानने वाले मूर्ति पुजा, नदीयों में स्नान, तीर्थों की यात्रा करते है और निगुर्ण को मानने वाले माया से उत्पन्न मन का ध्यान करते हैं। लेकीन शब्द ब्रह्म जिससे यह दोनों उत्पन्न हुए है उसे कोई नहीं जानता ।
कुछ इसी प्रकार के शब्द महाराज जी ‘ब्रह्म कला’ में भी कहते हैं |

निर्गुण सरगुण से है न्यारा, शब्द अतीत अमोलं | निर्गुण मन माया ब्रह्म ज्ञानी, सरगुण काया खोलम् ||४८||
केते सुर नर मुनि जन अटके, धर निर्गुण का ध्यानं | कथा कीर्तन गावन ध्यावन, निर्गुण सरगुण हानं ||४९||
मूल मंत्र का भेद लाखऊँ, जिन निर्गुण सरगुण कीन्ह्या | दोहूँ से न्यारा शब्द सनेही सो किन्हे बिरले चीन्ह्या ||५०||
सूक्ष्म लीन निरंतर निर्भय, पूर्ण है सर्व देशं | तोल मोल कीमत नहीं जाकी, ना कुछ वर्ण न भेषम् ||५१||
निज गलतान अनूप अनाहद, दृष्टि मुष्टि से न्यारा | अडोल अबोल अछेद अभेदम्, ना हल्का नहीं भारा ||५२||(ब्रह्म कला )

महाराज जी ने निर्गुण और सरगुण के भेद का भ्रम निवारण ‘आदि रत्न पुराण योग ’ में कागभुषड और खगेश (गरूड) के संवाद के द्वारा अच्छी तरह से किया है ।

रामायण के युध्द में जब भगवान राम और लक्ष्मण जी का मेघनाद के साथ युध्द हुआ तो मेघनाद ने भगवान राम और लक्ष्मण को नाग पाश में बांध दिया । तब हनुमान जी गरूड के पास गए और भगवान को नाग पाश से मुक्त करने को कहा । गरूड जी ने प्रभु राम और लक्ष्मण जी को नाग पाश से मुक्त तो कर दिया लेकीन उनके मन में यह प्रशन उत्पन्न हुआ की सारी दुनीया को मुक्त करने वाले भगवान स्वयं बंधन में कैसे आ सकते हैं ? परमेश्वर को तो निर्गुण निराकार कहा गया है फिर वह सगुण साकार रूप में कैसे आए ? कहीं यह भगवान हैं भी या नहीं ? इसी शंका के साथ गरूड जी भगवान शिव जी के पास गए। शिव जी ने उन्हें कागभुषड जी के पास भेज दिया । गरूड जी ने अपनी शंका कागभुषडी जी से कही कागभुषडी जी ने अपनी कथा के द्वारा उनका समाधान किया । कागभुषड जी ने कहा खगेश जी मेरे पहले अनेकों जन्म हुए जो व्यर्थ चले गए । फिर मैने अयोध्या में जन्म लिया । बिस वर्ष की आयु में माता पिता की मृत्यु हो गई । फिर अयोध्या में अकाल पडा लोग अन्न को तरस गए। तब मैं मालु देश में चला गया। वहां अवंती पुरी में एक पंडित के पास रहा और उन्हें गुरू बना लिया । पंडित जी रोज शिवालय में पुजा और कथा करते थे । एक बार पंिडत जी पुजा कर रहे थे तो मैं वहीं बैढकर उन्हें देखने लगा । वहां पर भगवान शिव जी आए उन्होंने मुझे वहां बैठा देख कर मुझे श्राप दिया की तुम लाख वर्ष तक जमपुरी में रहो । पंडित जी को मुझ पर दया आई उन्होंने शिव जी का ध्यान लगाया शिव जी प्रसन्न हो गए और जम लोक को तुरंत भोगने को कहा । मेरी देह छुट गई मैने तत्काल जम का लोक भुगत लिया जमों ने हमे वहां कोई तकलीफ नहीं दी । फिर अगले जन्म में मैने बहुत तपस्या की एक समय लोमष ऋषि जी सरगुण कथा कर रहे थे । मैने उन्हें जाकर प्रणाम किया और कहा की हे ऋषि वर मैं निर्गुण का अधिकारी हुं कृपा कर आप मुझे निर्गुण का उपदेश करें । इस पर लोमष ऋषि ने कहा की निरगुण पद दिखाई नहीं पडता अर्थात सरगुण कथा के बिना निर्गुण पद की समझ नहीं आती । सरगुण उस गुप्त निगुर्ण का ही प्रगट रूप है । बीज के अंदर वृक्ष अपने सभी अंगो के साथ सुक्ष्म रूप में मौजुद रहता है लेकिन हमारी दृष्टि में नहीं आता । जब बीज को उगाया जाता है तो उसमें से तना, डालीयां, पत्तों, फुल और फलों सहित पुरा वृक्ष व्यक्त रूप में उत्पन्न हो जाता है। इसी तरह निर्गुण परमेश्वर सगुण रूप में साकार होता है ।

लोमष जी बोले की भाई सरगुण के बिना निर्गुण किसी काम का नहीं और निर्गुण के बिना तो सरगुण हो ही नहीं सकता । जैसे शंख से अगर अवाज उत्पन्न करनी हो तो उसमें हवा को जोर से फुकना पडता है। अब बिना शंख के आप कितनी भी जोर से फूंक मारो अवाज नहीं निकलेगी । दोनों अवस्था में हवा तो वही है और अपने उसी निर्गुण स्वरूप में है लेकीन उससे अवाज उत्पन्न करने के लिए व्यक्त शंख का होना जरूरी है। इसी तरह निर्गुण परमेश्वर को व्यक्त होने के लिए सरगुण रूप धारण करना पडता है।

लोमष जी ने कहा की बर्तन के बिना वस्तु को कहां रखोगे । और वस्तु के कारण ही बर्तन का महत्व है। यहां बर्तन का तात्पर्य शरीर से और वस्तु का तात्पर्य (सुरित) जीवात्मा से है ।

गुप्त वस्तु प्रगट दिखलाई, निगुर्ण सरगुण समझो भाई । वृक्ष बीज में है सब ठौरा, जब ऊगै तब दीखै मौरा ।। डाल पान सब नजरयों आया, पंछी केल करत है छाया ।।
गरीब जैसे पंछी वृक्ष में, केलि करत दिन रैंन । समाधान में सृष्टि है, वास लिया सुख चैंन ।।४५।।
फल पंछी नर करै आहारा, याह लीला सरगुण विस्तारा । सरगुण भोग किये भगवाना, बहु विधि विलसे संत सुजाना ।।
कोई निर्गुण कोई सरगुण गावै, पूणे पेटा सूत कहावै । बाजत शंख सुनी दम टेरा, वहां शंख अवाज क दम का फेरा ।।
लोमष ऋषि प्रसंग सुनाया, दम बिन शंख अवाज न राया । शंख शरीर पवन से गूंजै, आत्मज्ञानी पद कूं बूझै ।।
सरगुण बिना न निर्गुण कामा, निर्गुण बिना न सरगुण धामा । बर्तन बिना वस्तु कहां पावै, वस्तु होई तो बर्तन आवै ।।
बर्तन देही अंग शरीरा, वस्तु नाम है सुरित गंभीरा । मंदिर बिना दीपक किस काजा, दीपक हो तो मंदिर साजा ।।

लेकिन मैं लोमश जी के ज्ञान को समझ नहीं पाया । लोमश जी ने क्रोध में आकर मुझे श्राप दे दिया की जुगों जुगों तक तुम्हारा मुख काग के जैसा हो जाए । पर मैने क्रोध नहीं किया इससे प्रसन्न होकर लोमश जी ने मुझे दिक्षा दी । और फिर मैने ईशान दिशा में काग का अवतार लिया ।

एक दिन जब प्रभु राम जी सात साल के थे तो उन्हें देखकर मेरे मन में शंका हुई की लोग इन्हें पारब्रह्म का अवतार कहते है क्या यह सचमुच पारब्रह्म है ? इनकी परीक्षा लेनी चाहिए। मैने मन में निश्चय किया की मैं इनके हाथ से रोटी का टूकडा लेकर उड जाऊंगा अगर यह सचमुच भगवान होंगें तो इनका हाथ मेरे पिछे पिछे आएगा । ऐसा निर्णय कर मैने प्रभु राम जी के हाथ से राटी का टुकडा छिन लिया और उसे लेकर अनेकों लोकों मे उडने लगा | जहाँ जहाँ मैं गया प्रभु का हाथ मेरे पिछे ही आता रहा । फिर मैंने कोटि कोटि ब्रह्मांडों मे विचरण किया लेकीन प्रभु का हाथ हमारे पिछे ही रहा। फिर जब मैं वापिस आने लगा तो खुद को प्रभु के मुख में पाया । वहां हमने स्वर्ग, पाताल, करोडों सूर्य, चन्द्रमा देखे । प्रभु के शरीर में असंख्य नदियां, बन, सरोवर, ताल देखे। वहां हमने करोडों ब्रह्मा, विष्णु, महेश, नारद, सरस्वती, शेष, इंद्र, वरूण और कुबेर देखे । करोडों रावण जैसे लंका पती देखे, करोडों हनुमान जैसे बलशाली देखे। तेरे जैसे अनंत गरूड देखे । करोडों धमर्राय करोडों चित्रगुप्त देखे । ऐसे एक कल्प तक घुमते रहे फिर जब मैने मन मे भगवान का स्मरण किया तो खुद को अयोध्या में रामचंद्र और नारद जी के साथ पाया। मैने प्रभु जी के चरण पकड लिए और कहा की आपकी लिला अपरमपार है ।

इस तरह महाराज जी ने सरगुण और निर्गुण को भेद रिहत बताया है | निगुर्ण निराकार ही सगुण साकार रूप धारण करके अवतार लेते हैं। आज भी कई ऐसे लोग मिल जाते हैं जो प्रभु या संतों, महापुरूषों के अवतारों को अज्ञानता के कारण नहीं मानते और उनके जीवन के बारे में किन्तु परन्तु करने लगते हैं । वाणी के द्वारा महाराज जी ने सपष्ट कर दिया की संत, महापुरूष और अवतार यह परमेश्वर का लोक कल्याण हेतु सरगुण साकार रूप है । यथा
गरीब, निर्गुण सरगुण एक है, दूजा भ्रम विकार | निर्गुण साहिब आप है, सरगुण संत विचार ||८७||

इसलिए इनकी सेवा परमेश्वर की ही सेवा है ।
।।सत साहिब ।।

1 comment:

  1. ब्लॉग के लिए बहुत बहुत साधुबाद
    हम लोग आशा करते है की आप सतगुरु आचार्य श्री गरीबदास जी की
    सम्पुरण वाणी का शब्द - अर्थ या टीका ओर भाष्य समस्त साधको के
    लिए इन्टनेट पर सम्पादित करने का प्रयास अवशय करगे ताकि
    सुप्रण समाज आचार्य श्री गरीबदास जी की वाणी का पूरा पूरा लाभ ले सके |

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